SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के कर्तृत्व से तो पाठक के हृदय में केवल तीर्थकर पद की महत्ता का-ही बोध होता है । किन्तु तीर्थकर बनने की प्रक्रिया को पढ़कर पाठक को आत्म बोध होता है। उससे उसे स्वयं तीर्थकर बनने की प्रेरणा मिलती है। यही उन्हें विशेष रूप से अभीष्ट है क्योंकि उनकी ग्रन्थ रचना का प्रमुख उद्देश्य अपने पाठकों को प्रबुद्ध करके प्रात्म कल्याण के लिय प्रेरित करना होता है । ईश्वर वादियों की दृष्टि में ईश्वर का जो स्थान है वही स्थान जैनों की दृष्टि में तीर्थंकर का है। किन्तु ईश्वर और तीर्थकर के स्वरूप और कर्तृत्व में बड़ा अन्तर है । ईश्वर तो अनादिसिद्ध माना गया है तथा उसका कार्य सृष्टि रचना, उसका प्रलय आदि है । वही प्राणियों को नरक और स्वर्ग भेजता है। उसकी इच्छा के बिना एक पत्ता तक नहीं हिल सकता। किन्तु तीर्थकर तो सादि सिद्ध होता है । तीर्थंकर बनने से पहले वह भी साधारण प्राणियों की तरह ही अपने कर्म के अनुसार जन्म मरण करता हुआ नाना योनियों में भ्रमण करता रहता है । जब उसे प्रबोध प्राप्त होता है तो प्रबुद्ध होकर अपने पुरुषार्थ के द्वारा उन्नति करता हुया तीर्थकर पद प्राप्त करता है और इस तरह वह अन्य जीवों के सामने एक उदाहरण उपस्थित करके उनकी प्रेरणा का केन्द्र बनता है तीर्थंकर होकर भी न वह किसी का निग्रह करता है और न अनुग्रह करता है । वह तो एक आदर्शमात्र होता है । राग द्वेष से रहित होने के कारण न वह स्तुति से प्रसन्न होता है और न निन्दा से नाराज होता है। आचार्य समन्तभद्र ने कहा है न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तवैरे । तथापि तव पुण्यगुणस्मृति नः पुनाति चित्त दुरिताञ्जनेभ्यः ।। [ बृहत्स्वयंभू स्तो. ] हे जिन, आप वीतराग हैं अतः आपको अपनी पूजा से कोई प्रयोजन नहीं। और आप बीत द्वेष हैं अतः निन्दा से भी कोई प्रयोजन नहीं है । फिर भी आपके पुण्य गुणों का स्मरण हमारे चित्त को पापकी कालिमा से मुक्त करता है अतः हम आपकी पूजा आदि करते हैं। संसार का कोई प्राणी ईश्वर नहीं बन सकता। किन्तु संसार का प्रत्येक प्राणी तीर्थकर बनने की योग्यता रखता है और यदि साधन सामग्री प्राप्त हो तो वह तीर्थंकर भी बन सकता है । सभी जैन तीर्थकर इसी प्रकार तीर्थंकर बने हैं। भगवान शान्तिनाथ भी इसी प्रकार तीर्थकर बने थे। उनके इस पुराण में सोलह सर्ग हैं जिनमें से प्रारम्भ के बारह सर्गों में उनके पूर्व जन्मों का वर्णन है और केवल अन्तिम चार सर्गों में उनके तीर्थंकर काल का वर्णन है । प्रत्येक तीर्थंकर के पांच कल्याणक होते हैं गर्भ में आगमन, जन्म, जिनदीक्षा, कैवल्य प्राप्ति और निर्वाण इन्हीं पांच का वर्णन मुख्य रूप से किया गया है । तीर्थङ्कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy