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________________ श्रीशांतिनाथपुराणम् सुजीर्णमन्नं विचिन्त्योक्तं सुविचार्य च यत्कृतम् । प्रयाति साधुसख्यं च तत्कालेऽपि न विक्रियाम् ।।३।। बालस्त्रोभीतवाक्यानि 'नादेयानि मनीषिभिः । जलानि वाऽप्रसन्नानि रमादेयानि उघनागमे ॥४०॥ प्रणिधानपरः कश्चित्प्रहेयः प्रणिधिस्त्वया । तस्याभ्याशमयो' तस्माज्जास्यामस्तद्विचेष्टितम् ॥४१॥ तत्प्रारम्भसमं नीत्या यद्य क्तं तद्विधास्यसि । सन्धिविग्रहयोरेकं प्राप्तकालमदूषितम् ।।४२।। कर्मायत्तं फलं पुंसां बुद्धिस्तदनुगामिनी । तथापि सुधियः कार्य प्रविचार्यैव कुर्वते ॥४३॥ इत्युक्त्वावसिते वारणी "सुमतौ 'सुमतौ ततः । प्रजिघाय तदभ्यर्ण दूतं स प्रीतिवर्धनम् ।।४४।। वहशेऽथ तमुद्देशं गत्वा तेनापराजितः । प्रियामिव द्विषत्सेनामेष्यन्ती. प्रतिपालयन् ॥४५॥ प्रपञ्चितनभोयुद्धव्यापारव्याप्तमानसम् । इतश्चित्तं निधत्स्वेति प्रणम्य स तमब्रवीत् ॥४६।। परः प्रसन्नगंभीरो भवानिव न लक्ष्यते । अन्त तपयोराशि: समग्रेन्दुरिवापरः ।।४७।। प्रानन्त्यं दृश्यते लोके तवैव गुणदोषयोः । अगण्यत्वादथाद्यस्य पश्चिमस्याप्यमावत: ॥४८।। अच्छी तरह पका हुआ अन्न, विचार कर कहा हुआ शब्द, विचार कर किया हुया कार्य और साधुजनों की मित्रता दीर्घकाल निकल जाने पर भी विकार को प्राप्त नहीं होता ॥३६।। जिस प्रकार वर्षा ऋतु में नदियों के मलिन जल ग्रहण करने के योग्य नहीं होते उसी प्रकार बालक, स्त्री और भयभीत मनुष्य के वचन बुद्धिमान् मनुष्यों के द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं होते हैं ।।४०।। तुम्हें कोई बुद्धिमान् दूत उसके पास भेजना चाहिये । तदनन्तर उस दूत से हम उसकी चेष्टा को जानेंगे ॥४१॥ जैसे उसने नीति पूर्वक कार्य का प्रारम्भ किया है वैसे ही आप भी सन्धि और विग्रह में से किसी एक को जिसका कि अवसर प्राप्त हो तथा जो निर्दोष हो, करोगे ।।४२।। यद्यपि पुरुषों का फल कर्म के अधीन है और उनकी बुद्धि भी कर्मानुसारिणी होती है तथापि बुद्धिमान् पुरुष अच्छी तरह विचार करके ही कार्य करते हैं ।।४३॥ उत्तम बुद्धि से युक्त सुमति मन्त्री जब इस प्रकार की वाणी कह कर चुप हो गया तब राजा दमितारि ने राजा अपराजित के पास प्रीतिवर्धन नामका दूत भेजा ॥४॥ तदनन्तर दूत ने उस स्थान पर जाकर अपराजित को देखा । उस समय अपराजित आने वाली शत्रु सेना की प्रिया के समान प्रतीक्षा कर रहा था ॥४५।। विस्तारित आकाश युद्ध के व्यापार में जिसका चित्त लग रहा था ऐसे अपराजित को प्रणाम कर दूत ने उससे कहा कि इधर चित्त लगाइये ॥४६॥ आपके समान प्रसन्न और गम्भीर दूसरा नहीं दिखायी देता। ऐसा जान पड़ता है जैसे आपने समुद्र को अपने भीतर धारण कर रक्खा हो अथवा मानों आप दूसरा पूर्णचन्द्र ही हैं। भावार्थ-आप समुद्र के समान गंभीर हैं और पूर्णचन्द्रमा के समान प्रसन्न हैं ॥४७।। लोक में आपके ही गुण और दोष में अनन्तपन देखा जाता है । गुणों का अनन्तपन तो इसलिये है कि वे अगण्य हैं-गिने नहीं जा सकते और दोषों का अनन्तपन इसलिये है कि उनका अभाव है ।।४।। आपका यश प्रत्यक्ष है परन्तु अप्रमारण है-प्रमाण न आदेयानि ग्रहीत योग्यानि २ नद्या इमानि नादेयानि ३ वर्षाकाले ४ प्रेषणमिः ५ चरः ६ समीपम ७ शोभनमति सहित ८ सुपति नाम्नि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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