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________________ तृतीय सर्ग। कर्णाभरणमुक्तांशुच्छरिताननशोभया । क्षयवृद्धियुतं चन्द्रं हसन्तमिव सन्ततम् ।।७।। सुधीरस्निग्धदुग्धाभदृष्टिपातैः समन्ततः । अन्तः प्रसन्नतां स्वस्य कथयन्तमनक्षरम् ।।७।। केयूरपद्मरागांशुदन्तुरौ बिभ्रतं भुजौ । सदा निर्यत्प्रतापाग्निज्वालापल्लविताविव ।।८।। विस्मयात्कण्ठमाश्लिष्य मुखकान्ति दिदृक्षणा। हारव्याजमुपादाय सेव्यमानमिवेन्दुना ।।८१॥ मेरुसानुविशालेन श्रीनिवासेन वक्षसा । प्रत्यपूर्व ब्रुवारणं वा 'प्रथिमानं स्वचेतसः ॥८२॥ नानाविधायुवाभ्यासश्रमच्छातीकृतोदरम् । अनर्घ्यरसनादामकलिताधरवाससम् ॥३॥ सुवृत्तनिविडानूनमांसलोरुद्वयश्रिया । ऐरावतकराकारं । परिभूय व्यवस्थितम् ॥४॥ सुश्लिष्टसन्धिबन्धेन मन्त्रेणेवाञ्चितात्मना । जानुद्वयेन गूढेन । राजमानं समन्ततः ॥८॥ सुवृत्तं लक्षणोपेतं जनाद्वयमनुत्तरम् । दधानं सन्मनोहारि सुकाव्यसदृशं परम् ॥८६॥ किञ्चिसिहासनात्नस्तवामाघ्र रोचिषां चयः। रञ्जयन्तमिवातानं :स्फाटिकं पादपीठकम् ॥७॥ मत्स्यचक्राम्बुजोपेतमुत्तानीकृत्य दक्षिणम् । सरोवरमिवापूर्व चरणं लीलया स्थितम् ॥८॥ व्याप्त मुख की शोभा से ऐसा जान पड़ता था मानो क्षय और वृद्धि से युक्त चन्द्रमा की सदा हँसी ही कर रहा हो।।७८।। जो सुधीर, स्निग्ध तथा दूध के समान आभावाले दृष्टि पातों से सब ओर चुपचाप अपने अन्तःकरण की प्रसन्नता को कह रहा था ॥७६।। जो बाजूबन्द में लगे हुए पद्मरागमणि की किरणों से व्याप्त उन भुजाओं को धारण कर रहा था जो सदा निकलती हुई प्रताप रूप अग्नि की ज्वालाओं से ही मानों पल्लवित - लाल लाल पत्तों से युक्त हो रही थी।।८०॥ जो हार के बहाने ऐसा जान पड़ता था मानों विस्मय से कण्ठ का आलिङ्गनकर मुख की कान्ति को देखने के इच्छुक चन्द्रमा के द्वारा सेवित हो रहा हो।।। मेरु पर्वत के शिखर के समान विशाल तथा लक्ष्मी के निवासभूत वक्षःस्थल से जो ऐसा जान पड़ता था मानों अपने चित्त की बहुत भारी पृथुता को ही कह रहा हो ।।२।। नानाप्रकार के शस्त्रों के अभ्यास सम्बन्धी श्रम से जिसका पेट कृश था तथा जिसका आधोवस्त्र अमूल्य मेखला करधनी से सहित था ।।३।। गोल, सान्द्र, विशाल, और परिपुष्ट दोनों जांघों की शोभा से जो ऐरावत हाथी की सूड की आकृति को तिरस्कृत कर स्थित था ।।८४।। जो सब ओर से घुटनों के उस गूढ़ युगल से शोभायमान हो रहा था जिसका कि सन्धिवन्ध अच्छी तरह श्लेष्ट था जो मन्त्र के समान सुशोभित तथा गुप्त था ।।८।। जो सुवृत्त-गोल ( पक्ष में अच्छे छन्दों से सहित ), सामुद्रिक शास्त्र में प्रदर्शित उत्तम लक्षणों से युक्त ( पक्ष में लक्षणावृत्ति से सहित), उत्कृष्ट, सत्पुरुषों के मन को हरण करने वाले उत्तम काव्य के समान किसी सर्वश्रेष्ठ जङ्घा युगल को धारण कर रहा था ।।८६।। जो सिंहासन से कुछ बाहर की ओर लटके हुए वाम चरण की लाल लाल किरणों के समूह द्वारा स्फटिकमणिनिर्मित पादपीठ-पैर रखने की चौकी को मानों लाल लाल कर रहा था ।।८७।। जो सरोवर के समान मत्स्य, चक्र और शङ्ख अथवा कमल से सहित ( पक्ष में १ विस्तारम् विशालतामित्यर्थः २ शोभनवर्तुलाकारम् पक्षे सुन्दरछन्दो युक्त ३ सामुद्रिकशास्त्रविहितलक्षणश्चिह्न। सहितं पक्षे लक्षणावृत्ति सहितं वामांह्रि ब.। ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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