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श्री जीवराज जैन ग्रंथमाला का परिचय
सोलापुर निवासी श्रीमान् स्व. ब्र. जीवराज गौतमचन्द दोशी कई वर्षोंसे उदासीन होकर धर्मकार्य में अपनी वृत्ति लगा रहे थे । सन् १९४० में उनकी प्रबल इच्छा हुई कि अपनी न्यायोपाजित संपत्तिका उपयोग विशेषरूपसे धर्म तथा समाज की उन्नतिके कार्य में लगे।
तदनुसार उन्होंने अनेक जैन विद्वानोंसे साक्षात् तथा लिखित रूप से इस बात की संमतियां संगृहीत की, कि कौनसे कार्य में अपनी संपत्तिका विनियोग किया जाय।
अन्तमें स्फुट मतसंचय कर लेनेके पश्चात् सन् १९४९ में गीष्मकालमें सिद्धक्षेत्र श्री गजपंथाजी के शीतल वातावरण में अनेक विद्वानोंको आमंत्रित कर, उनके सामने ऊहापोह पूर्वक निर्णय करनेके लिये उक्त विषय प्रस्तुत किया गया।
विद्वत्संमेलन के फल स्वरूप श्रीमान् ब्रह्मचारीजीने जैन संस्कृति तथा प्राचीन जैन साहित्यका संरक्षण-उद्धार-प्रचार के हेतु 'जैन संस्कृति संरक्षक संघ' नामकी संस्था स्थापन की । तथा उसके लिये रु० ३०००० का वृहत् दान घोषित किया गया।
प्रागे उनकी परिग्रह निवृत्ति बढ़ती गई । सन् १९४४ में उन्होंने लगभग दोलाख की अपनी संपूर्ण संपत्ति संघ को ट्रस्ट रूपसे अर्पण की।
इसी संस्थाके अंतर्गत 'जीवराज जैन ग्रंथमाला' द्वारा प्राचीन-संस्कृत-प्राकृत-हिंदी-मराठी ग्रंथोंका प्रकाशन कार्य आज तक अखंड प्रवाह से चल रहा है ।
आज तक इस ग्रंथमालासे हिंदी विभागमें ३२ ग्रंथ, कन्नड विभागमें ३ ग्रंथ तथा मराठी विभागमें ४५ ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं ।
प्रस्तुत ग्रंथ इस ग्रंथमालाका हिंदी विभाग का ३३ वां पुष्प प्रकाशित हो रहा है।
-प्रकाशक
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