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________________ षोडशः सर्गः वन्दारुभिर्वन्दिजनैः समेतैः स्वयं च भवत्या स्तुतिमङ्गलानि । उच्चारयद्भिः पुरतः प्रतस्थे लौकान्तिकेद्योतितविश्वलोकः ॥ २१४॥ 'पद्मा परीवारधृतापि रागात्पद्यातपत्रं स्वयमुद्वहन्ती । तस्थौ स्वसौभाग्यगुणेन लोकान्विलोभ्य शेषान्परमेश्वराय ।। २१५।। सरस्वती लोकमनोरमेण विद्यागुणेनानुगता निकामम् । 'चतुः प्रकारामलवाग्विभूतिरानचं वागीश्वरमेत्य वाग्भिः ।। २१६ ।। प्रसीद भर्तविजयस्व देव स्वामिन्नितः साधय साधयेति । बाभाषमारेगः सह तत्क्षितीशा पुरन्दरः पूर्वसरो बभूव ।। २१७ ।। "ततस्त्रिलोकीपतिभि । समन्ताद्विषीयमानामलमङ्गलेन । ललामभूतं भुवनस्य वन्द्य मर्त्रा समारुह्चत पद्मयानम् ॥२१८॥ प्राशाः प्रसेदुर्बवृश्च रत्नान्यानन्दमेर्यो विवि नेदुरुच्चैः । वसुन्धरा रञ्जित रत्नसारा सस्योत्तरीयं बिभरांबभूव ।।२१६|| Jain Education International समान था इसीलिये वे उसे बड़ी सावधानी से सुन रहे थे । वह गान रक्त-लाल ( पक्ष में राग रानियों से युक्त ) होने पर भी भगवान् के यश को मध्य में धारण करने के कारण विशुद्ध — शुक्ल ( पक्ष में उज्ज्वल ) था ।। २१३ ।। जो वन्दना करने वाले नन्दि जनों से सहित थे, भक्तिपूर्वक स्तुतिरूप मङ्गलों का उच्चारण कर रहे थे तथा समस्त लोक को जिन्होंने प्रकाशित कर रक्खा था ऐसे लौकान्तिक देव आगे चल रहे थे ।। २१४ ।। २५१ इनके अतिरिक्त जो अपने परिकर से युक्त थी तथा प्रीति वश स्वयं ही परमेश्वर - शान्तिजिनेन्द्र को कमल का छत्र लगाये हुयी थी ऐसी लक्ष्मी देवी अपने सौभाग्य गुरण से अन्य समस्त लोगों को लुभा कर स्थित थी ।। २१५।। जो लोगों के मन को रमरण करने वाले - लोकप्रिय विद्या गुरण से अनुगत थी तथा चार प्रकार के निर्मल वचन रूपी विभुति से सहित थी ऐसी सरस्वती देवी प्रकर वचनों के स्वामी श्री शान्ति जिनेन्द्र की वचनों के द्वारा अर्चा कर रही थी ।। २१६ ।। हे स्वामिन् ! प्रसन्न हो, हे देव ! आप विजयी हों, हे नाथ ! इधर पधारो पधारो इस प्रकार तत्तद्ददेश के राजा के साथ बार बार कहता हुआ इन्द्र आगे आगे चल रहा था ।। २१७ ।। तदनन्तर तीनों लोकों के स्वामियों के द्वारा सब ओर से जिनका निर्मल मङ्गलाचार किया गया था ऐसे शान्तिप्रभु लोक के प्राभूषण स्वरूप उस वन्दनीय पद्मयान पर अच्छी तरह प्रारूढ थे ।। २१८ ।। दिशाएं निर्मल हो गयी थीं, रत्न बरस रहे थे, आकाश में प्रानन्दभेरियां उच्च शब्द कर रही थीं तथा देदीप्यमान श्रेष्ठ रत्नों से सहित पृथिवी धान्य रूपी उत्तरीय - वस्त्र को धारण कर रही थी ।। २१ ।। १ लक्ष्मी: २ अप्रेसरः ३ धान्योत्तरवस्त्रम् | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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