________________
चतुर्दशः सर्ग
१९३
१ शिलीमुखौघसंपातः पुष्पितासु लतास्वनूत । पाशिकानां निवासेषु विकारोपचयस्थितिः ॥ कपोला एव नागानां दानोत्सेकेन संयुताः । वश्यात्मानः सदाभूवन्नपस्मारविकारकाः ॥ १ प्रासादेषु भ्रमो दृश्यः खड्गेषु कलहासिका । फलितेषु द्रुमेष्वेव वियोगः प्रकटः परम् ||२०| दृश्यते पारिहार्येषु " परवार' करग्रहः । विचार 'स्तर्कविद्यासु 'नैगुण्यं शक्रकार्मुके ||२१| सतामासीत्समरागमनस्थितिः । विधूयन्ते स्म वक्त्रारिण लालितान्यपि योषिताम् ||२२|| शाब्दिकाननतः हमालं श्रूयेते सन्धिविग्रहौ । कथ्यमानं तथान्यायदुर्गती च कथान्तरे ||२३|| " श्राशाभ्रमरगमन व धानुष्के मार्गणासनम् । द्विरदे पांसुला कोडा दृश्यते स्म घंटे भिवा ॥२४॥
सर्वदैव
יי
दीपक ही दिन के समय स्नेह - तैल से जली हुयी बत्ती से सहित थे प्रतारण के मार्ग में अच्छी तरह संलग्न अन्य कामी मनुष्य स्नेह - प्रेम से पतित अवस्था से युक्त नहीं रहते थे ।। १७ ।। शिलीमुखौघसंपात - भ्रमर समूह का सब ओर से पड़ना फूली लताओं पर ही होता था वहां के मनुष्यों पर शिलीमुखौघसंपात - वाण समूह की वर्षा नहीं होती थी । विकार समूह की स्थिति पाश फैलाने वाले लोगों के निवास स्थानों में ही थी अन्य मनुष्यों में नहीं || १८ || दानोत्सेक — मदजल के उत्सेचन से संयुक्त हाथियों के गण्डस्थल ही थे वहां के मनुष्य दानोत्सेक—–दान सम्बन्धी अंहकार से सहित नहीं थे | वश्यात्मा - जितेन्द्रिय मनुष्य ही सदा अपस्मार विकारकाः — काम सम्बन्धी विकार से रहित वहां के मनुष्य अपस्मार - मूर्च्छा की बीमारी से सहित नहीं थे || १६ || भ्रम -- पर्यटन महलों में ही दिखायी देता था वहां के मनुष्यों में भ्रम - संदेह नहीं दिखायी देता था । कलहासिका - चन्द्रमा जैसी चमक दमक तलवारों में ही थी । वहां के मनुष्यों में कलहासिका - कलह प्रियता नहीं थी । वियोगपक्षियों का योग फले हुए वृक्षों पर ही प्रकट रूप 'था वहां के मनुष्यों में वियोग - विरह प्रकट रूप से नहीं था ।।२०।। पर दार कर ग्रह - उत्तम स्त्रियों के हाथ का ग्रहरण आभूषणों में था वहां के मनुष्यों में पर स्त्रियों के हाथ का ग्रहण नहीं था। विचार-तर्क वितर्क न्याय विद्या में ही था वहां के मनुष्यों में विचार – गुप्तचरों का प्रभाव नहीं था । नैर्गुण्यं - डोरी का अभाव इन्द्र धनुष में ही था वहां के मनुष्यों में दया दाक्षिण्य अथवा सन्धि विग्रह आदि गुणों का अभाव नहीं था ॥२१॥ समरागमनः स्थिति – सम- माध्यस्थ्यभाव रूपी राग से सहित मन की स्थिति सदा सत् पुरुषों की हीं थी अन्य मनुष्यों की समरागमनस्थिति – युद्ध प्राप्ति की स्थिति नहीं थी अर्थात् युद्ध करने का अवसर नहीं आता था । यदि कोई कम्पित होते थे तो स्त्रियों के लालित - प्रीतिपूर्ण मुख ही कम्पित होते थे वहां के मनुष्य भय से कम्पित नहीं होते थे ||२२|| सन्धि और विग्रह शब्द - वर्णों का परस्पर मेल और समास का प्राग् रूप वैयाकरणों के मुख से ही सुनायी पड़ते थे अन्यत्र सन्धि-मेल और विग्रह - विद्व ेष अथवा युद्ध के शब्द सुनायी नहीं पड़ते थे । इसी प्रकार अन्याय और दुर्गति ये शब्द कही जाने वाली कथाओं के बीच ही सुनायी पड़ते थे अन्यत्र नहीं ||२३|| प्रशाभ्रमरण - दिशाओं में
交
१ भ्रमरसमूहसंपातः वारणसमूहसंपातः, २ इस्तिनाम्, ३ मदजलसेचनेन, दान जन्यगर्वेण ४ पक्षियोगः, विरहः, ५ आभूषणेषु ६ उत्कृष्ट स्त्रीकरग्रहणम्, परस्त्रीकरग्रहणम्, ७ विमर्श: गुप्तचराभावः ८ प्रत्यश्वारहितत्वम्, गुणरहितत्वच ६ इन्द्रधनुषि, १० वैयाकरणमुखात् ११ दिग्भ्रमणं, तृष्णा भ्रमरणम्,
१२ धनुः याचनाश्रय ।
२५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org