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श्रीशांतिनाथपुराणम् एण्यविमानतो 'नाकातीर्थकृन्नागवेश्मनः । रत्नौधाद्गुणरत्नेशो दृष्टाहश्च कर्महा२ ॥५७॥ ईदृशस्तनयो देवि भविष्यति तवाविराद । इति तत्फलमाख्याय प्रीतोऽभूद्भभुजां प्रभुः ॥८॥ शान्तस्वप्नफलानीतप्रमोदभरविह्वला | राशा विसजितायासोद्देवी स्वभवनं शनैः ॥५६॥ अनभस्यसितपक्षस्य भावने भरणीस्थिती । सप्तम्यां निशि नाकाप्रान्महेन्द्रोऽवतरद्भवम् ।।६।। ऐरायाः प्राविशच्चास्यं वर्षदैराबता कृतिम् । अनुग्रहाय भव्याना तीर्थकर्मप्रचोदितः ॥६१॥ ततस्तववतारेस कम्पितात्मीयविष्टरः । देवश्चतुविधै ५ प्रापे तत्पुरं सपुरग्दरः॥६२॥ विमानमयमाकाशं दिव्यामोदमयो मरुत् । तूर्यध्वानमयं विश्वमासोद्रत्नमयीव भूः ॥६॥ इन्दुबिम्बसहस्रण निर्मितेवाभवत्तदा । रजनी दिव्यनारीणां मुखैः कोर्णा मनोरमः ॥६४॥ दिशो दिविजमुक्तामिः पुष्पवृष्टिभिराचिताः । स्फीतामकप्रतिध्यानाः साट्टहासा इबभुः ॥६५॥ नृत्यदप्सरसा वृन्दं स्फुरन्मरिणविभूषणम् । प्रचलत्कल्पवल्लीनां वनं वा दिवि विद्य ते ॥६६।। देवानां देहलावण्यप्रवाहैः प्लावितं तदा । तत्पुरं सहसा कृत्स्नं तेजोमयमिवाभवत ॥६७॥
और दिखी हुयी अग्नि से कर्मों को नष्ट करने वाली हे देवी ! तुम्हारे शीघ्र ही ऐसा पुत्र होगा। इस प्रकार उन स्वप्नों का फल कह कर राजाधिराज विश्वसेन बहुत प्रसन्न हुए ॥५४-५८।। शान्त स्वप्नों के फल से प्राप्त हर्ष के भार से जो विह्वल हो रही थी ऐसी रानी ऐरा, राजा से विदा होकर धीरे धीरे अपने भवन को चली गयी ।।५६ ।। भाद्रपद शुक्ल पक्ष की सप्तमी की रात्रि में जब चन्द्रमा भरणी नक्षत्र पर स्थित था, तब महेन्द्र ( मेघरथ का जीव ) सर्वार्थ सिद्धि से प्रथिवी पर अवतीर्ण हा ॥६०॥ तीर्थंकर प्रकृति से प्रेरित वह महेन्द्र अहमिन्द्र भव्यजीवों के अनुग्रह के लिये ऐरावत हाथी की आकृति को धारण करता हुआ ऐरा देवी के मुख में प्रविष्ट हुआ.। भावार्थ ऐरा देवी ने ऐसा स्वप्न देखा कि ऐरावत हाथी हमारे मुख में प्रवेश कर रहा है ॥६१॥
तदनन्तर उसके अवतरण से जिनके अपने आसन कंपायमान हो गये थे ऐसे चतुणिकाय के देव इन्द्रों सहित उस नगर में आ पहुंचे ।।६२।। उस समय आकाश विमानमय हो गया, पवन दिव्य सुगन्ध मय हो गया, संसार वादित्रों की ध्वनि से तन्मय हो गया और पृथिवी रत्नमयी हो गयी। देवाङ्गनाओं के सुन्दर मुखों से व्याप्त रात्रि ऐसी हो गयी मानों हजारों चन्द्रबिम्बों से रची गयी हो ॥६३-६४।। देवों के द्वारा छोड़ी हुई पुष्पवृष्टिों से व्याप्त तथा बाजों की विस्तृत प्रतिध्वनि से युक्त दिशाएं ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानों अट्टहास से सहित ही हों ॥६५॥ चमकते हुए मणियों के आभूषणों से सहित, नृत्य करने वाली अप्सराओं का समूह आकाश में ऐसा देदीप्यमान हो रहा था मानों चञ्चल कल्पलताओं का वन ही हो ॥६६।। उस समय देवों के शरीर सम्बन्धी सौन्दर्य के प्रवाहों से डूबा हुआ वह समस्त नगर तेज से तन्मय जैसा हो गया था अर्थात् ऐसा जान पड़ता था मानों तेज से ही निर्मित हो ।।६७।। उस समय महान् ऋद्धियों के धारक इन्द्रों से व्याप्त आकाश अमूर्तिक होने
३ भाद्रपद शुक्लपक्षस्य
१ न विद्यते अकंदुःख यत्र स तस्मात् स्वर्गात . २ कारिण हन्तीति कर्महा ४ ऐरावतस्येव आकृतिस्ताम् ५ भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकभेदेन चतुःप्रकारैः ।
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