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त्रयोदशः सर्गः
पोनस्तनयुगोरिणभारमन्परगामुकः । तथापि स्त्रीजनो यत्र कामेनास्त्रीकृतः कथम् ॥१८।। संसारस्थोऽपि यत्रासीवात्माधीनः सुखान्वितः । मुक्तात्मेव जनः सर्वः समानगुणलक्षितः ॥१६॥ माताः पुष्पमया यस्मिन्पुष्पेषोरिव सायकाः । प्रमिकामिजनं पेतुर्मन्मयोन्मादहेतवः ॥२०॥ अध्यास्त तत्पुरे राजा विश्वसेनो विशालधीः । प्रभारि लीलया येन विश्वो विश्वम्भराभर। ॥२१॥ प्रतापाक्रान्तलोकोऽपि सुखालोको यथा विधुः । सारदः परकार्येषु विद्य ते यो विशारदः ॥२२॥ साधु वृताहितरतिः 'सवर्थघटनोद्यतः । चित्तस्थाशेषलोकोऽभूद्यः प्रभुः सत्कविर्यथा ॥२३।।
संचार नहीं देखा जाता था ।।१५।। जहां पर सहकार परिभ्रमः-सुगन्धित प्रामों पर परिभ्रमण करना कोयलों में ही था वहां के मनुष्यों में सहायक विषयक व्यापक संदेह नहीं था अर्थात् ये हमारी सहायता करेंगे या नहीं ऐसा संदेह नहीं था तथा अत्यन्त कमलायास-कमलपुष्पों की प्राप्ति के लिये अत्यधिक खेद भ्रमरों में ही प्रति दिन देखा जाता था वहां के मनुष्यों में लक्ष्मी की प्राप्ति के लिये अत्यधिक खेद नहीं देखा जाता था ॥१६॥
जिस नगर के भवन और योद्धा यद्यपि पर दारों-पर स्त्रियों-उत्कृष्ट स्त्रियों और शत्रु के विदारणों में संगत-संलग्न थे तथापि बड़े आश्चर्य की बात थी कि वे अन्य दुर्लभ पताकाओं को धारण कर रहे थे । भावार्थ-भवन श्रेष्ठ स्त्रियों से सहित थे तथा उन पर पताकाएं फहरा रही थीं और योद्धा शत्रुओं के विदारण करने में संलग्न थे तथा युद्ध में विजय पताका प्राप्त करते थे ।।१७।। जहां का स्त्री समूह यद्यपि स्थूल स्तनयुगल और नितम्बों के भार से धीरे धीरे चलता था तथापि काम ने उसे अस्त्रीकृत-स्त्रीत्व से रहित (पक्ष में अस्त्र स्वरूप) कैसे कर दिया ।।१८।। जहां रहने वाले समस्त मनुष्य संसारी होने पर भी मुक्तात्मा के समान स्वाधीन, सुख सहित तथा समान गुणों से युक्त थे ॥१६॥ जहां काम के उन्माद को करने वाली वायु काम के पुष्पमय वारणों के समान कामीजनों के सन्मुख बहा करती थी । भावार्थ-पुष्पों से सुवासित सुगन्धित वायु कामीजनों को ऐसी जान पड़ती थी मानों कामदेव अपने पुष्पमय वाणही चला रहा हो ॥२०॥
उस हस्तिनापुर नगर में विशालबुद्धि का धारक वह राजा विश्वसेन रहता था जिसने समस्त पृथिवी का भार लीलापूर्वक-अनायास ही धारण कर लिया था ॥२१॥ जो प्रताप के द्वारा लोक को आक्रान्त करने वाला होकर भी चन्द्रमा के समान सुखालोक-सुखसे दर्शन करने योग्य था। दूसरों के कार्यों में सारद-महत्त्वपूर्ण सहयोग देने वाला था तथा विशारद-अत्यन्त बुद्धिमान था ऐसा वह राजा अतिशय देदीप्यमान था ।।२२।। जो राजा उत्तम कवि के समान था क्योंकि जिस प्रकार उत्तम कवि साधुवृत्ताहितरति उत्तम छन्दों में प्रीति को धारण करने वाला होता है उसी प्रकार वह राजा भी सत्पुरुषों के प्राचार में प्रीति को धारण करने वाला था। जिस प्रकार उत्तम कवि सदर्थघटनोद्यत-उत्तम अर्थ के प्रतिपादन में उद्यत रहता है उसी प्रकार वह राजा भी
१न स्त्रीकृतः पो शस्त्रीकृतः २ पृथिवीभारा ३ सारं भेष्ठं ददातीनि सारद: ४ विद्वान् ५ सत्कविपक्षे साधुवृत्तेषु निर्दोष छन्दःसु आहिता रतिःप्रीतिर्यव स: पक्षे सत्पुरुषाचारे धृतप्रीतिः ६ सत: प्रशस्तस्य अर्थस्य वाच्यस्य घटने संयोजने उद्यतः तत्परः सत्कविः। पक्षे सतां साधूनाम् अर्थस्य प्रयोजनस्म घटनायां संगत्यामुद्यता
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