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________________ १४० श्रीशान्तिनाथपुराणम् मिःसारीभूतसौभाग्यतयाग्रमहिषो रुषा । सा विश्लेषयितु भूपमभि'चारमचीकरत ॥४६।। संदर्य कृत्रिमा माला मन्त्रधूपाधिवासिताम्। वसन्तागमने राजे सा सखीभिन्यवेदयत् ॥५०॥ तामालोक्य विरक्तोऽभूवल्लभायाः स तत्क्षणे । मरिणमन्त्रौषधीनां हि शक्त्या किं वा न साध्यते ॥५॥ किञ्चिद्विमुखितं ज्ञात्वा तच्चित्तं सा मनस्विनी । तेनामुनीयमानापि पुनर्भोगान चाददे ॥५२॥ मुनेर्दताभिधानस्य मूले संयमसाधनम् । अकरोत्स्वं वपु व्यं भव्यतायाः फलं हि तत् ॥५३॥ जातविप्रतिसारेण मनसा व्याकुलोऽपि सन् । धैर्येण तद्वियोगाति कथं कथमशीशमत् ॥५४।। संसारदेहभोगानां प्रविचिन्त्य 'पुलाकताम् । नत्वानन्तजिनं रागादव्यग्रः सोऽग्रहीत्तपः ॥५५।। लक्ष्मों क्रमागतां त्यक्त्वा तौ तृणावज्ञया ततः। प्रावाजिष्टां समं पित्रा जयन्तविजयावपि ॥५६॥ तीर्थकृद्भावनां सम्यग्भावयित्वा यथागमम् । हित्वा प्रापसनु धैर्यावच्युतेन्द्रत्वमच्युते ॥५७॥ तत्पुत्रावपि तत्रैव कल्पे तत्प्रणयादिव । प्रभूतां भूतसंप्रीती तस्मिन्सामानिको' सुरौ ॥८॥ राज्ञो हेमाङ्गदस्यासोदवतीर्याच्युतात्सुतः । स देव्यां मेवमालिन्यां नाम्ना धनरथोऽनघः ॥५६॥ कल्याणद्वितयं प्राप्य देवेन्द्रेभ्यः स भासते । पुण्डरीकेक्षणो रक्षन्नगरी पुण्डरीकिरणीम् ॥६०॥ से प्रधानरानी ने उससे राजा को अलग करने के लिए मन्त्र तन्त्र कराया ॥४६॥ वसन्त ऋतु आने पर उसने अपनी सखियों के द्वारा राजा के लिए मन्त्र और धूप से संस्कार की हुई कृत्रिम माला दिखला कर आमन्त्रित किया ॥५०।। उस माला को देखकर राजा उसी क्षरण वल्लभा-प्रथिवीषेरणा नामक प्रियस्त्री से विरक्त हो गया सो ठीक ही है क्योंकि मणि मन्त्र और औषधी को शक्ति से क्या नहीं सिद्ध किया जाता? ॥५१॥ मानवती पृथिवीषेरणा ने राजा के चित्त को कुछ विमुख जानकर उनके द्वारा मनाये जाने पर भी फिर भोगों को ग्रहण नहीं किया ॥५२॥ किन्तु दत्त नामक मुनिराज के समीप अपने उत्तम शरीर को संयम का साधन कर लिया अर्थात् आर्यिका के व्रत लेकर तपस्या रने लगी सो ठीक हो है क्योंकि भव्यता का फल वही है ॥५३॥ खिन्न मन से व्याकुल होने पर भी राजा ने धैर्यपूर्वक पृथिवीषेणा की विरहजनित पीड़ा को किसी किसी तरह शान्त किया ।।५४।। पश्चात् उसने संसार शरीर और भोगों की निःसारता का विचार कर अनन्त जिन को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया तथा निराकुल हो कर उन्हींके पास तप ग्रहण कर लिया ॥५५॥ जयन्त और विजय भी वंश परम्परा से आई हुई लक्ष्मी को तृण के समान अनादर से छोड़कर पिता के साथ दीक्षित हो गये ।।५६।। अभयघोष मुनि तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध योग्य षोडश कारण भावनाओं का शास्त्रानुसार अच्छी तरह चिन्तवन कर तथा धैर्य से शरीर छोड़कर अच्युत स्वर्ग में इन्द्र पद को प्राप्त हुए ॥५७।। उनके पुत्र जयन्त और विजय भी उनके स्नेह से ही मानों उसी अच्युत स्वर्ग में परस्पर प्रीति को धारण करने वाले सामानिक देव हुए ।।५८।। वह अच्युतेन्द्र, अच्युत स्वर्ग से च्युत हो कर राजा हेमाङ्गद की मेघमालिनी रानी के घनरथ नामका निष्कलङ्क पुत्र हुआ ।।५६।। इन्द्रों से दो कल्याणक प्राप्त कर वह कमल लोचन, पुण्डरीकिरणी नगरी की रक्षा करता हुआ सुशोभित हो रहा है ।।६।। १ मन्त्रतन्त्रप्रयोगम् २ नि:सारताम् ३ दर्शनविशुद्धयादि भावना संप्रीतिर्ययोस्तौ ६ देवविशेषौ ७ गर्भजन्मकल्याणक युगं । ४ स्वर्ग ५ भूता समुत्पन्ना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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