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________________ नवमः सर्गः प्राग्बन्धं भुजयोः कृत्वा नागपाशेन तत्क्षणात् । दीपिकामपि शैलेन बोधकोप: 'ध्यवत्त सः॥८॥ स्वभुजाजम्भगेनैव पाश मौजङ्गमं तदा। युवराजः स चिच्छेद नगालावया लतः ॥६॥ निरास्थत गरीयांसं पुनपढामबाहुना । दीपिकामुखतः शैलं शोकमप्यङ्गनाजमात् ॥८॥ वय॑तश्चक्रिणस्तस्य यं वीयं च वीक्ष्य सः । देवोऽप्य दुद्रुवदीत्या सपुण्यः केन लान्यते ॥८॥ यावत्स दीपिकामध्यान्न निःक्रामति सत्वरम् । तावदेवाक्रमीत्तस्य त्रिलोकीमखिलां यशः ॥८॥ भोगिवेष्टनमार्गण भुजावस्य विरेजतुः । विटपौ चन्दनस्येव जगतस्तापहारिणः ॥६॥ वामः पाणिरयं चास्य यथार्थः प्रतिभात्यलम् । महोघ्रोल्लासनायास्य पगितप्राङ गुलीनखः ।।६१॥ देवोऽप्यस्य प्रतिद्वन्द्वी न स्थातुमशकरपुरः। गर्जतो 'मृगराजस्य 'गजपोत इब सन् ॥१२॥ विवेशेति पुरं पौरैः कोय॑मानं सकौतुकैः। अनाहत्य परस्येव स्वस्य शृण्वन् स पौरुषम् ॥१३॥ निर्गत्य सदसो दूरं वीक्ष्यमाणः स भूमिपैः। चारयन्वन्दिमां घोषं प्राविशद्राजमन्दिरम् ॥४॥ हए उस देवने उसी क्षण पहले तो नागपाश के द्वारा युवराज की भुजाओं का बन्धन किया पश्चात् एक शिला से उस दीपिका को आच्छादित कर दिया ॥५५॥ तदनन्तर युवराज ने उस नागप भुजाओं की अंगड़ाई के द्वारा ही मृणाल के समान अनादर पूर्वक तत्काल तोड़ डाला ॥८६॥ और बायीं भुजा के द्वारा दीपिका के मुख से बड़ी भारी शिला को तथा स्त्रीजनों से शोक को एक साथ दूर कर दिया ॥८७॥ भावी चक्रवर्ती के धैर्य और शौर्य को देख कर वह देव भी भय से भाग गया सो ठीक ही है क्योंकि पुण्यवान् मनुष्य किसके द्वारा लांघा जाता है-अनाहत होता है ? अर्थात् किसी के द्वारा नहीं ।।८८॥ वह यवराज जब तक दीपिका के मध्य से नहीं निकला तब तक शीघ्र ही उसका यश तीनों लोकों में व्याप्त हो गया ॥८६॥ जिस प्रकार जगत् के संताप को हरने वाले चन्दन वृक्ष की दो शाखाएं सांपों के लिपटने के मार्ग से सुशोभित होती हैं उसी प्रकार जगत् के कष्ट को हरने वाले युवराज की दोनों भुजाएं नागपाश के लिपटने के मार्ग से सुशोभित हो रही थीं ॥१०॥ पर्वत की शिला को उठाने के लिये जिसकी श्रेष्ठ अंगुली का नख कुछ कुछ टेड़ा हो गया था ऐसा युवराज का वाम हाथ सार्थक होता हुमा अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ॥४१॥ जिस प्रकार भयभीत हाथी का बच्चा गर्जते हुए सिंह के सामने खड़े होने के लिये समर्थ नहीं होता उसी प्रकार वह विरोधी देव भी युवराज के सामने खड़े होने के लिये समर्थ नहीं हो सका ।।१२।। __ इस प्रकार कौतुक से युक्त नागरिक जनों के द्वारा कहे जाने वाले अपने पौरुष को दूसरे के पौरुष के समान अनादर से सुनते हुए युवराज ने नगर में प्रवेश किया ।।६३॥ सभा से बहुत दूर निकल कर राजा लोग जिसे देख रहे थे ऐसे युवराज ने बन्दीजनों की विरुदावली को रोक कर राजभवन में प्रवेश किया ।।१४।। वहां सिंहासन पर विराजमान, तीनों जगत् के गुरु-तीर्थकर पद धारक पिता को १ आच्छादयामास २ भुजङ्गमानामयंभौजङ्गम स्तं नागपाश मित्यर्थः ३ भविष्यतः ४ पलायाश्च ५ सिंहस्य ६ हस्तिबालक इव ७ भयभीतो भवन् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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