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________________ श्रीशांतिनाथपुराणम् विमाने स्वस्तिकावर्ते तनहाभूत्स भूपतिः । मसिचूलाल्पया देवः स्कुरच्चूलामणि तिः ॥१६॥ पुण्यात्स्वं तत्र संजातं भावकाचारसंचितात् । प्रादुर्भूतावधी सद्यस्ताक्वागवतां सुरौ ॥१६२॥ ततोऽन्यज़ जिनं भक्त्या दिल्यैसन्धादिभिःपुरा । तत्र तत्वामरी भूसिमक्षता निरविक्षताम् ॥१३॥ कालः प्रायात्तयोस्तसिनिमसत्यध्युपमः सुखात् । बिभ्रतोललितं नेहममलानमक्यौवनम् ॥१६।। तस्मावादित्यचूलोऽहं स्वर्गादेत्यापराजितः । रामः प्रभाकरीशस्य समभूवं सुतोत्तमः ॥१६॥ मरिषचूलं तमात्मेति प्रतीहि खचरेश्वरम् । तस्मैवानन्तवीर्याख्यो मपितुस्तनोमयः ॥१६६॥ वमितारि निहत्या निदानास्केशवोऽभवः । मृत्वा रत्नप्रभायां त्वं सीमन्नावर्तकं ॥९६७।। निरीक्ष्य निर्विशन्तं स्वां नारकी घोरपेक्नाम् । विबोध्य ग्राहयामास सम्यक्त्वं धरणः पितः।।१६।। समाः सप्तसहस्राणि 'षड्गुणान्युपबाह्य ताः । प्रश्नोती रकामा सम्पनत्वप्रभवात्ततः ॥१६६।। होयेऽस्मिन भारते वास्ये विद्यते राजताचलः। तस्मात्यथोत्तरश्रेण्या पुरं गगनवल्लभम् ।।१७०॥ नभश्चराधिपस्त्राता तस्याभून्याहना । परया संपदा येन विजितो नरवाहनः ॥१७१। प्रासीत्तस्य महादेवी प्रेयसी मेघमालिनी । 'श्वभ्रात्प्रभ्रश्य पुत्रोऽभून्मेघनादस्तयोर्भवान् ।।१७२।। कल्प के स्वस्तिकावर्त विमान में देदीप्यमान चूडामणि की कान्ति से युक्त मरिणचूल नामका देव हुआ ॥१६१।। जिन्हें शीघ्र ही अवधिज्ञान प्रकट हो गया था ऐसे उन देवों ने जान लिया कि हम श्रावकाचार से संचित पुण्य से वहां उत्पन्न हुए हैं ।।१६२॥ तदनन्तर वहां उन्होंने सर्व प्रथम भक्ति पूर्वक दिव्य गन्ध आदि के द्वारा जिनेन्द्र भगवान् की पूजा की। पश्चात् देवों की अविनाशी विभूति का उपभोग किया ।।१६३।। जिसका नवीन यौवन कभी म्लान नहीं होता ऐसे सुन्दर शरीर को धारण करने वाले उन देवों का वहां बीस सागर प्रमाण काल सुख से व्यतीत हो गया ।।१६४।। मैं आदित्य चूल उस स्वर्ग से आकर प्रभाकरी नगरी के स्वामी राजा के अपराजित नामका उत्तम पुत्र हुआ था ॥१६५।। मणिचूल को तुम 'यह मैं ही हूँ' ऐसा विद्याधर राजा समझो । तुम मेरे उसी पिता के अनन्त वीर्य नामक पुत्र हुए थे ।।१६६।। युद्ध में दमितारि को मारकर निदान बन्ध के कारण तुम नारायण हुए थे। और मरकर रत्नप्रभा पृथिवी के सीमन्तक विल को प्राप्त हुए थे ॥१६७।। वहां तम्हें नरक की घोर वेदना भोगते देख पिता के जीव धरण ने समझा कर सम्यक्त्व ग्रहण कराया था ॥१६८। निरन्तर दुखी रहने वाले तुम वहां बियालीस हजार वर्ष व्यतीत कर सम्यक्त्व के कारण वहां से च्युत हुए ॥१६॥ तदनन्तर इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में जो विजयाध पर्वत है उसकी उत्तर श्रेणी पर एक गगन वल्लभ नामका नगर है ।।१७०॥ जिसने उत्कृष्ट संपदा से इन्द्र को जीत लिया था ऐसा मेघ वाहन विद्याधर उस नगर का रक्षक था ।।१७१। उसकी मेघ मालिनी नाम की प्रिय रानी थी। आप नरक से निकलकर उन दोनों के मेघनाद नामक पुत्र हुए ॥१७२।। तदनन्तर पिता का उत्कृष्ट १ ज्ञातवन्तौ २ अमराणामियम् आमरी देवसम्बन्धिनी ताम् ३ विशतिसागरप्रमाण: ४ युद्ध ५ भुञ्जानम् ६ नरकेभवा नारकी ताम् ७ भयंकरपीडाम् ८ वर्षाणि । षड्गुणितनि सप्तसहमवर्षाणि १० नस्कात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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