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________________ ६६ श्रीशान्तिनाथपुराणम् मागधः स चिरं तप्त्वा सम्यक्त्वालंकृतं तपः । ' विधिनापघनं त्यक्त्वा महाशुक्रे सुरोऽभवत् ।। १४० ।। काले मासमुपोष्य स्वे विशन्तं मथुरां पुरीम् । तं मध्याह्नदुषा गृष्टिघंटोनी प्राहरत्वयि ।। १४१ ॥ तस्याः शृङ्गप्रहारेण पतितं विश्वनन्दिनम् । महासोल्लक्ष्मरगा 'सुनुवंश्यासोबतले स्थितः ।। १४२ ॥ प्रहासात्तस्य 'सोत्सेकाच्चुक्रुधे मुनिना भृशम् । तेनाकारि निदानं च प्रायस्तद्वधलिप्सया || १४३ ।। स निवृत्य ततो गत्वा हित्वा "तनुतरां तनुम् । महद्धविबुधो जज्ञे महाशुक्रे तपः फलात् ।। १४४ ।। पारेतम समस्त्यत्र विविक्तस्तापसाश्रमः । श्रासीद्व खानसस्तत्र 'यायजूको महाजटः । १४५ ।। विशाखनन्द्यपि भ्रान्त्वा संसृतौ सुचिरं सुतः । सुजटो नाम तस्याभूत्तन्माता च जयाभिषा ।। १४६ ।। स पञ्चाग्नितपस्तप्त्वा जज्ञे स्वर्गे सुरो महान् । ततश्च्युत्वा 'हयग्रीवो बभूव खचरेश्वरः ।। १४७॥ मागघोऽपि विनश्च्युत्वा स जातो विजयो हली । विश्वनन्दी त्रिपुष्टास्यः समभूदा विकेशवः ११॥ १४८ ॥ १२ पृष्टं प्राग्भवं व्यक्तमुक्त्वेति विरते मुनौ । प्राशंसत्सकला संसम्मूदिता तपसः फलम् ।। १४६ ।। नन्दी को मारा नहीं किन्तु काका विशाख भूति के साथ संभुत नामक मुनिराज के समीप दीक्षा ग्रहण कर ली ।। १३६ । मगध देश का राजा विशाखभूति चिर काल तक सम्यक्त्व से सुशोभित तप को तप कर तथा विधि पूर्वक शरीर को छोड़ कर महा शुक्र स्वर्ग में देव हुआ || १४० ।। इधर विश्व नन्दी मुनिराज एक मास का उपवास कर आहार के समय जब मथुरा नगरी में प्रवेश कर रहे थे तब मध्याह्न के समय दुही जाने वाली घट के समान स्थूल थन से युक्त एक प्रसूता गाय ने मार्ग में उन पर प्रहार कर दिया ।। १४१ ।। उसके सींगों के प्रहार से विश्व नन्दी मुनि गिर पड़े। उसी समय वेश्या के मकान की छत पर विशाख नन्दी बैठा था उसने उन गिरे हुए विश्व नन्दी मुनि की हँसी की ।। १४२ । । उसकी गर्व पूर्ण हँसी से मुनि को अत्यधिक क्रोध आ गया और उन्होंने उसे मारने की इच्छा से निदान कर लिया ।। १४३।। पश्चात् मथुरा से लौट कर उन्होंने अत्यंत कृश शरीर को संन्यास विधिसे छोड़ा और तप के फल से वे. महाशुक्र स्वर्ग में महान् ऋद्धियों को धारण करने वाले देव हुए ।। १४४॥ इधर तमसा नदी के उस पार तापसियों का एक पवित्र आश्रम था । उसमें निरन्तर यज्ञ करने वाला महाजट नामका एक तापस रहता था ।। १४५ ।। विशाख नन्दी भी चिर काल तक संसार में भ्रमण कर उस तापस के सुजट नामका पुत्र हुआ । सुजट की माता का नाम जया था ।। १४६ ॥ वह सुजट पञ्चाग्नि तप तप कर स्वर्ग में बड़ा देव हुआ । पश्चात् वहां से चय कर अश्वग्रीव नामका विद्याधर राजा हुआ ।। १४७ ।। विशाखभूति भी स्वर्ग से चय कर विजय नामका बलभद्र हुआ और विश्वनन्दी त्रिपृष्ठ नामका पहला नारायरण हुआ ।। १४८ || इस प्रकार स्पष्ट रूप से त्रिपृष्ठ के पूर्व भव १ संन्यासविधिना २ देहम् ३ सकृत्प्रसूता को ४ घटवत्स्थूलस्तनयुक्ता ५ विशाखनन्दी ६ वगर्वात् ७ अतिकृशाम् ८ पुनः पुनरतिशयेन वा यजनशीलः ६ अश्वग्रीवः एतनामधेयः प्रतिनारायणः १० बलभद्रः ११ प्रथमनारायण : १२ त्रिपृष्टस्येदं पृष्टम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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