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________________ ६४ श्रीशान्तिनाथपुराणम् चकार च तपो बालं बाल एव जटाधरः । 'विपूर्यः कल्पितं मुजैविभ्राणो मेखलागुणम् ॥११॥ चिरेण तापसो मृत्वा विद्याधरनिदानतः । अजन्यशनिघोषोऽयं स धीमान्कपिल: कृती ॥११६॥ अनेनाशनिघोषेण सुतारेयमतो. हृता । सत्यमामाहितानूनप्रीतिवासितचेतसा ॥१२०॥ इत्यतीतभवांस्तेषामुदीर्य विरते जिने । संसारावासनिवाबासुरेयोऽग्रहोत्तपः ॥१२॥ स्वयंप्रभापि तत्पादौ नवा दीक्षा समाववे । उद्वष्टचापि दुष्टयां स्वपुत्रस्नेहपाशिकाम् ।।१२२।। प्रणम्य विजयं भक्त्या धावकव्रतभूषितौ । खेचरक्ष्माचरेन्द्रौ तौ धाम स्वं प्रतिजग्मतुः ॥१२।। शृण्वन्धर्मकथाः श्रग्याः कुर्वजनं महामहम् । खेचरेन्द्रोऽनयत्कालं भूपश्च स्वहितोद्यतः ॥१२४।। अन्यदा पोदनेशोऽथ सोपचासो जिनालये । पद्राक्षीच्चारणौ प्राप्तौ देवामरगुरू यती ॥१२५।। 3निर्वतितयथाचारावासोनौ स प्रणम्य तौ। स्वपित्र्यं भवमप्राक्षीबतीतं पृथिवीपतिः ॥१२६।। ततो देवगहायानिति प्राह मनिस्तयोः । तस्यालिकतटन्यस्तहस्ताम्भोजस्य भभुजः ॥१२७॥ श्रुतं तीर्थकृतः पूर्व श्रेयसः सविधे मया । "प्राक्केिशववृत्तान्तं कथाप्रस्तावमागतम् ॥१२॥ किये हुए मूजों से निर्मित कटिसूत्र को धारण करता था ऐसा वह मृगशृङ्ग बालतप-अज्ञानतप करता था ॥११८। वह तापस, जो बुद्धिमान्, तथा कार्य कुशल कपिल था चिर काल बाद मर कर 'मैं विद्याधर होऊ' इस निदान के कारण यह अशनिघोष हा है ॥११६।। इस अशनिघोष ने सूतारा को इसलिये हरा था कि इसका चित्त सत्यभामा में लगी हुई बहुत भारी प्रीति से संस्कारित है ॥१२०।। इसप्रकार उनके पूर्वभव कह कर जब केवली जिनेन्द्र रुक गये तब संसार वास से विरक्त होने के कारण अशनिघोष ने तप ग्रहण कर लिया-मुनि दीक्षा ले ली ।।१२१।। दुःख से खुलने योग्य अपने पुत्र के स्नेह पाश को खोल कर स्वयंप्रभा ने भी केवली जिनेन्द्र के चरणों को नमस्कार किया और पश्चात् दीक्षा ग्रहण कर ली ।।१२२॥ विजय केवली को भक्ति पूर्वक प्रणाम कर जो श्रावक के व्रत से विभूषित थे ऐसे विद्याधर राजा तथा भूमि गोचरी राजा-दोनों अपने २ स्थान पर चले गये ॥१२३।। प्रात्म हित में उद्यत रहने वाला विद्याधरों का राजा और भूमिगोचरी राजा सुनाने योग्य धर्मकथाओं को सुनता तथा जिनेन्द्र भगवान् की महामह-पूजा करता हुआ समय व्यतीत करने लगा ।।१२४।। . अथानन्तर किसी समय पोदनपुर का राजा उपवास का नियम लेकर जिन मन्दिर में विद्यमान था। वहां उसने आये हुए देवगुरु और अमर गुरु नामक दो चारण ऋद्धि धारी मुनि देखे ॥१२५।। देव वन्दनादि की विधि पूरी कर चुकने के बाद बैठे हुए उन मुनियों को राजा ने प्रणाम कर अपने पिता के पूर्व भव पूछे ।।१२६॥ ... तदनन्तर उन दोनों मुनियों में ज्येष्ठ मुनि देव गुरु, ललाट तट पर हस्त कमलों को स्थापित करने वाले राजा से इस प्रकार कहने लगे । भावार्थ-मूनि राज कह रहे थे और राजा अर ललाट पर रख कर सुन रहा था ॥१२७।। मैंने श्रेयान्सनाथ तीर्थंकर के पास पहले कथा प्रसङ्ग से आया हुया प्रथम नारायण का वृत्तान्त सुना था ।।१२८॥ इस भरत क्षेत्र में भरत नाम का पूर्ण १शोधितेः २ दुःखेन उद्वेष्टनीया ३ संपादितनमस्कारादिव्यवहारी ४ प्रथमनारायणवृत्तान्तम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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