________________
५५
पंचम सर्गः केचित्प्रौर्ण विषुर्वेहैर्मोमाकारैर्नमस्तलम् । तमन्ये शरधाराभिर्घनाः प्रौर्णविषुः स्वयम् ॥७३॥ द्विषद्धिस्तेन चोन्मुक्तशस्त्रसंघट्टजो महान् । अन्तरा ज्वलनो रेजे तद्य द्धमिव वारयन् ।।७४।। व्योम्नोऽर्वाशिरसः पेतुनिहतास्तेन केचन । त्रपयेव परावृतसंनाहपिहिताननाः ॥७॥ प्रात्मसात्कृतया पूर्व पुष्पंक्तिसमानया । चिच्छेद द्विषतां विद्याः स महाजाल विद्यया ॥७६।। निघ्नानोऽप्यरिसंघातमनेकं न विसिस्मिये । तदेव साम्प्रतं नूनमवदानकृतां सताम् ॥७७॥ तेन विध्वस्तसैन्योऽपि रत्नग्रीवो न विव्यथे । विपत्सु महतां धैर्य नापयाति हि मानसात् ॥७८।। स वामकरशाखामी रेजे खड्गं परामृशन् । तत्रैव निश्चलां कुर्वन्प्रचलन्तीं जयश्रियम् ।।७।। समाह्वयत युद्धाय पुनः श्रमगतं क्रुधा । स्फुरन्तं तेजसा शत्रु सहते को हि सात्विकः ।।८०॥ नानाविधायुधानेकविद्यासंमर्दवारुणः । रणः प्रावति तेनोच्चैरुच्चावचमहाध्वनिः ॥१॥ प्ररातिशस्त्रसंपातैर्वजन्नेकोभ्यनेकताम् । स विग्भिरकरोत्साधं सर्वमात्ममयं वियत् ।।२।।
भीमाकार-भयंकर शरीरों से आकाश को आच्छादित कर लिया और अन्य विद्याधर स्वयं मेघ बनकर उसे वाण की धाराओं-वाणरूपी जल की धाराओं से आच्छादित करने लगे ॥७३॥ शत्रुओं तथा अपराजित के द्वारा छोड़े हुए शस्त्रों के संघट्टन से उत्पन्न हुई बहुत भारी अग्नि बीच में ऐसी सुशोभित हो रही थी मानों उस युद्ध को रोक ही रही हो ॥७४।। अपराजित के द्वारा मारे हुए कितने ही विद्याधर नीचे की ओर शिर कर आकाश से गिर रहे हैं जिससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानों लज्जा के कारण ही उन्होंने उलटे कवचों से अपने मुख ढक लिये थे ।।७५।।
पूर्वपुण्यसमूह के समान अपने अधीन की हुई महा जाल विद्या के द्वारा अपराजित ने शत्रुओं की समस्त विद्याओं को छेद दिया था।।७६।। शत्रुओं के अनेक झुण्डों को मारता हुआ वह विस्मय को प्राप्त नहीं हुआ सो ठीक ही है क्योंकि साहस करने वाले सत्पुरुषों को वही योग्य है। भावार्थपराक्रमी सत्पुरुषों को विस्मय न करना ही उचित है ।।७७।। अपराजित के द्वारा यद्यपि रत्नग्रीव की समस्त सेना नष्ट कर दी गयी थी तो भी वह पीड़ित नहीं हुआ सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुषों के मन से धैर्य नहीं जाता है ॥७८॥ वह बांये हाथ की अंगुलियों से तलवार का स्पर्श करता हुआ ऐसा सुशोभित हो रहा था मानों चञ्चल विजयलक्ष्मी को उसी पर निश्चल कर रहा हो ॥७६।। उसने थके हुए शत्रु को क्रोध से युद्ध के लिये पुनः ललकारा सो ठीक ही है क्योंकि तेज से देदीप्यमान शत्रु को कौन पराक्रमी सहन करता है ? ।।८०।। उसने नाना प्रकार के शस्त्र और अनेक विद्याओं के संमर्द से ऐसा युद्ध जारी किया जिसमें बहुत भारी कलकल शब्द हो रहा था ।।८१।।
शत्रों के ऊपर लगातार शस्त्रों की वर्षा करने से वह अपराजित एक होकर भी अनेक रूपता को प्राप्त होता हुआ ऐसा जान पड़ता था मानों उसने दिशाओं के साथ समस्त आकाश को अपने से तन्मय कर लिया हो। भावार्थ-जहाँ देखो वहाँ अपराजित ही अपराजित दिखायी देता था ।।८२॥ नष्ट होने से शेष बचे हुए सैनिकों ने बार बार कोलाहल किया। उससे क्षणभर ऐसा लगा
१ आच्छादयामासुः २ वामहस्तांगुलिभिः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org