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________________ ३८४ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०४८६अन्तर्मुहूर्तशेषायुष्कः तदा तत् प्रसिद्ध तृतीयं सूक्ष्मक्रियाप्रतिपात्यभिधान शुक्लध्यानं ध्यायति स्मरति । तत् किम् । यत् केवलज्ञानस्वभावः केवलज्ञानं केवलबोधः तदेव स्वभावः स्वरूपं यस्य स तथोक्तः । केवलज्ञानवरूपं वा, प्राकृते लिङ्गमेदो नास्तीति । च पुनः । कथंभूतः सूक्ष्मे योगे काये संस्थितः सूक्ष्मकाययोगे सम्यकप्रकारेण स्थिति प्राप्तः । औदारिकशरीरयोगे कीदृक्षे । सूक्ष्मे । पूर्वस्पर्धकापूर्वस्पर्धकबादरकृष्टिकरणानन्तरं सूक्ष्मकृष्टिकर्तव्यतां प्राप्ते बादरकाययोगे स्थित्वा क्रमेण बादरमनोवचनोच्छ्वासं निःश्वासं बादरकाययोगं च निरुध्य ततः सूक्ष्मकाययोगे स्थित्वा क्रमेण सूक्ष्ममनोवचनोच्छ्वासनिःश्वासं निरुध्य सूक्ष्मकाययोगः स्यात् । स एव सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यानं भवतीत्यर्थः । तथा ज्ञानार्णवे चोक्तम् । 'मोहेन सह दुर्धर्षे हते घातिचतुष्टये । देवस्य व्यक्तिरूपेण शेषमास्ते चतुष्टयम् ॥ सर्वज्ञः क्षीणकर्मासौ केवलज्ञानभास्करः। अन्तर्मुहर्तशेषायुस्तृतीयं ध्यानमर्हति ॥' 'शेषे षण्मासायुषि संवृत्ता ये जिनाः प्रकर्षेण । ते यान्ति समुद्धातं शेषा भाज्याः समुद्धाते।' यदायुरधिकानि स्युः कमोणि परमेष्ठिनः । समुद्धातविधिं साक्षात् प्रागेवारभते तदा ॥' 'अनन्तवीयेः प्रथितप्रभावो दण्डं कपाटं प्रतरं विधाय। स लोकमेनं समयैश्चतुर्भिः निःशेषमापूरयति क्रमेण ॥ तदा स सर्वगः सार्वः सर्वज्ञः चौंतीस अतिशय और समवसरण आदि विभूतिसे शोभित तथा परमऔदारिक शरीरमें स्थित तीर्थकर देव अथवा अपने योग्य गन्धकुटी आदि विभूतिसे शोभित सामान्य केवली अधिकसे अधिक कुछ कम एक पूर्व कोटि काल तक विहार करते हैं । जब उनकी आयु अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाती है तब वे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक तीसरे शुक्ल ध्यानको ध्याते हैं । इसके लिये पहले वह बादर काययोगमें स्थित होकर बादर वचन योग और बादर मनोयोगको सूक्ष्म करते हैं। फिर वचनयोग और मनोयोगमें स्थित होकर बादर काययोगको सूक्ष्म करते हैं । उसके पश्चात् सूक्ष्मकाय योगमें स्थित होकर वचन योग और मनोयोगका निरोध कर देते हैं। तब वह सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान को ध्याते हैं ।। ज्ञानार्णवमें लिखा है-मोहनीयकर्मके साथ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन चार दुर्धर्ष घातिया कर्मोंका नाश होजाने पर केवली भगवानके चार अघातिकर्म शेष रहते हैं ॥ कर्मरहित और केवलज्ञान रूपी सूर्यसे पदार्थोंको प्रकाशित करनेवाले उस सर्वज्ञकी आयु जब अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाती है तब वह तीसरे शुक्लध्यानके योग्य होते हैं ॥ जो अधिकसे अधिक छः महीनेकी आयु शेष रहने पर केवली होते हैं वे अवश्य ही समुद्धात करते हैं । और जो छः महीने से अधिक आयु रहते हुए केवली होते हैं उनका कोई नियम नहीं है वे समुद्धात करें और न भी करें। अतः जब अरहंत परमेष्ठीके आयुकर्मकी स्थितिसे शेष कर्मोंकी स्थिति अधिक होती है तब वे प्रथम समुद्धातकी विधि आरम्भ करते हैं । अनन्तवीर्यके धारी वे केवली भगवान् क्रमसे तीन समयोंमें दण्ड, कपाट और प्रतरको करके चौथे समयमें लोकपूरण करते हैं । अर्थात् मूल शरीरको न छोड़कर आत्माके प्रदेशोंके बाहर निकलनेको समुद्धात कहते हैं । सो केवलीसमुद्धातमें आत्माके प्रदेश प्रथम समयमें दण्डाकार लम्बे, दूसरे समयमें कपाटाकार चौड़े और तीसरे समयमें प्रतररूप तिकोने होते हैं और चौथे समयमें समस्त लोकमें भर जाते हैं ॥ तब सर्वगत, सार्व, सर्वज्ञ, सर्वतोमुख, विश्वव्यापी, विभु, भर्ता, विश्वमूर्ति और महेश्वर इन सार्थक नामोंका धारी केवली लोकपूरण करके ध्यानके बलसे तत्क्षण ही कर्मोंको भोगमें लाकर वेदनीय, नाम और गोत्र कर्मकी स्थिति आयुकर्मके समान कर लेता है । इसके बाद वह उसी क्रमसे चार समयोंमें लोकपूरणसे लौटता है। अर्थात् लोकपूरणसे प्रतर, कपाट और दण्डरूप होकर चौथे समय आत्मप्रदेश शरीरके प्रमाण हो जाते हैं ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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