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________________ -३९४] १२. धर्मानुप्रेक्षा २९१ दशप्रकारैः परिणति प्राप्तः । पुनः किंभूतः । सर्वत्र मध्यस्थः, सर्वेषु सुखे दुःखे तृणे रत्ने लाभालामे शत्रौ मित्रे च मध्यस्थः उदासीनः समचित्तः । रागद्वेषरहितः असौ साधुः यतीश्वरः धर्मो भण्यते ॥ ३९२ ॥ अथ दशप्रकार धर्म विवृणोति सो चेव दह-पयारो खमादि-भावहिं सुप्पसिद्धेहिं । ते पुणु भणिजमाणा मुणियव्वा परम-भत्तीए ॥ ३९३ ॥ [छाया-स चैव दशप्रकारः क्षमादिभावैः सुप्रसिद्धैः। ते पुनर्भण्यमानाः ज्ञातव्याः परमभक्त्या ॥] स एव यतिधर्मः दशप्रकारः दशमेदः । कैः । क्षमादिभावैः, उत्तमक्षमामार्दवार्जवसत्यशौचसंयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्याख्यैः परिणामैः परिणतैः । कथंभूतैस्तैः । सौख्यसारैः सौख्यं शर्म सारं श्रेष्ठं येषां येषु येभ्यो वा ते सौख्यसारास्तैः सौख्यसारैः सौख्येन शर्मणा वर्गमुक्त्यादिजेन सारैः श्रेष्ठः। अथोत्तरार्धेन दशधर्मस्य दशगाथासूत्रेण व्याख्यायमानस्य पातनिकां प्रतनोति । ते पुनः दश धर्माः दशविधधर्माः भणिजमाणा कथ्यमानाः मन्तव्याः ज्ञातव्याः। कया। परमभक्त्या परमधर्मानुरागेण श्रेष्ठभजनेन ॥३९३ ॥ अथोत्तमक्षमाधर्ममाचष्टे कोहेण जो ण तप्पदि सुर-णर-तिरिएहि कीरमाणे वि। उवसग्गे वि रउद्दे तस्स खमा णिम्मला होदि ॥ ३९४ ॥ [छाया-क्रोधेन यः न तप्यते सुरनरतिर्यग्भिः क्रियमाणे अपि । उपसर्गे अपि रौद्रे तस्य क्षमा निर्मला भवति ॥1 तस्य मुनेः क्षमा क्षान्तिर्निर्मला भवति, उत्तमक्षमा धर्मः स्यात् । उत्तमग्रहणं ख्यातिपूजालाभादिनिवृत्त्यर्थ तत्प्रत्येकममिसं ।। उत्तमक्षमा उत्तममार्दवादिष्विति । तस्य कस्य । यो मुनिः क्रोधेन कोपेन कृत्वा न तप्यति तापं संतापं न गच्छति न ज्वलते इत्यर्थः । क्व सति । रौद्रे घोरे उपसर्गेऽपि चतुर्विधोपसर्गे अपिशब्दात् न केवलं अनुपसर्गे। कीदृक्षे । क्रियमाणे निष्पाद्यमाने अपिशब्दात् अचेतनेनानध्यवसायेन च । कैः क्रियमाणे उपसर्गे । सुरनरतिर्यग्भिः सुराश्च नराश्च तिर्यश्वश्च सुरनरतिर्यञ्चः तैः ॥ यथा श्रीदत्तमुनिः व्यन्तरकृतोपसर्ग प्राप्य शुद्धबुद्धकशुद्धचिद्रूपवरूपं साम्यखखरूपं वीतरागनिर्विकल्पसमाधिना समाराध्य घातिचतुष्टयं हत्वा केवलज्ञानं लब्ध्वा मोक्ष खात्मोपलब्धि प्राप ॥ तथा विद्युचरमुनिः और सम्यक् चारित्रका धारक होता है । उत्तम क्षमा आदि दस धर्मोको सदा अपनाये रहता है और सुख दुःख, तृण रत्न, लाभ अलाभ और शत्रु मित्रमें समभाव रखता है, न किसीसे द्वेष करता है और न किसीसे राग करता है, वह साधु है । और वही धर्म है । क्योंकि जिसमें धर्म है वही तो धर्मकी मूर्ति है, बिना धार्मिकोंके धर्म नहीं होता ॥३९२॥ अब धर्म के दस भेदोंका वर्णन करते हैं। अर्थ-वह मुनिधर्म उत्तम क्षमा आदि भावोंके भेदसे दस प्रकारका है, उन भावोंका सार ही सुख है। आगे उसका वर्णन करेंगे। उसे परमभक्तिसे जानना उचित है ॥ भावार्थ-उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, अकिंचन्य और ब्रह्मचर्यके भेदसे मुनिधर्म दस प्रकारका है । इन दस धर्मोंका सार सुख ही है। क्योंकि इनका पालन करनेसे वर्ग और मोक्षका सुख प्राप्त होता है । आगे इनमेंसे प्रत्येकका अलग अलग व्याख्यान करेंगे ॥ ३९३॥ अब उत्तम क्षमा धर्मको कहते हैं। अर्थ-देव, मनुष्य और तिर्यञ्चोंके द्वारा घोर उपसर्ग किये जाने पर भी जो मुनि क्रोधसे संतप्त नहीं होता, उसके निर्मल क्षमा होती है । भावार्थ-उपसर्गके चार भेद है-देवकृत, मनुष्यकृत, तिर्यश्चकृत और अचेतनकृत। जो मुनि इन चारों ही प्रकारके भयानक उपसर्गोसे विचलित होकर अपने मनमें भी क्रोधका भाव नहीं लाता, वही मुनि उत्तम क्षमाका धारी होता है। शास्त्रों में ऐसे क्षमा १ कम स ग सुक्खसारेहि। २ स होहि (ही)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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