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स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा
[ गा० ३३२
त्रसजीवानां घातं नानुमोदयति । मया हिंसादिकर्मेदं समीचीनं कृतं तथा करोमि करिष्यामीति वचनानुमोदनं वचनेन हर्षोद्भवनं न करोति । इति षष्ठो भङ्गः । ६ । स्वयं खात्मना कायेन कृत्वा त्रसकायिकानां जीवानां घातं प्राणव्यपरोपणं न करोति । मया हिंसा कृता हिंसां करोमि करिष्यामीति कायेन इति न करोति । इति सप्तमो भङ्गः । ७ । कायेन परजनं प्रेसकायिकानां प्राणिनां हिंसां पीडां बाधां प्राणव्यपरोपणं त्रसघातं न कारयति । इति अष्टमो भङ्गः । ८ । स्वयं शरीरेण त्रसघातं प्राणव्यपरोपणं नानुमोदयति । तत्कथम् । हिंसाकर्मणि शरीरे सोद्यमबलभवनं यष्टिमुष्टिपादप्रहारादिदर्शनं, हिंसादिकं दृष्ट्वा श्रुत्वा च हर्ष प्राप्य मस्तकादिदोलनं, चौरादिकपीडाकाष्ठभक्षणभृगुपात मल्लयुद्धप्रामादिषु सत्सु उत्साहपूर्वकं लोचनाभ्यामवलोकनं कर्णे तद्वार्ताश्रवणेऽपि उत्साहः चेत्यादिककायादिचेष्टनं शरीरानुमोदनादिकं न कर्तव्यम् । इति नवमो भङ्गः । ९ । एवं नव भङ्गाः । तथा मनोवाक्काययोगैः कृतकारितानुमतविकल्पैः त्रसजीवानां रक्षानुकम्पा दया कर्तव्या अनृतविरत्याद्यणुव्रतेषु ज्ञातव्याः । तथा गृहादिकार्यं विना वनस्पत्यादिपञ्चस्थावरजीवबाधा न कर्तव्या । तथा अहिंसाव्रतस्य विचारता कि अमुक पुरुषसे कहकर त्रसजीवोंका घात कराऊँगा २ । किसीको त्रस घात करता हुआ देखकर मनमें ऐसा नहीं विचारता कि यह ठीक कर रहा है ३ | वचनसे स्वयं हिंसा नहीं करता अर्थात् कठोर अप्रिय वचन बोलकर किसीका दिल नहीं दुखाता, न कभी गुस्से में आकर यही कहता है कि तेरी जान लूँगा, तुझे काट डालूंगा आदि ४ । वचनसे दूसरोंको हिंसा करनेके लिये प्रेरित नहीं करता कि अमुकको मार डालो ५ । वचनसे त्रस घातकी अनुमोदना नहीं करता कि अमुक मनुष्यने अमुकको अच्छा मारा है ६ । स्वयं हाथ वगैरह से हिंसा नहीं करता ७ । हाथ वगैरहके संकेतसे दूसरोंको हिंसा करनेकी प्रेरणा नहीं करता ८ । और न हाथ वगैरह के संकेत से किसी हिंसकके कार्यकी सराहना ही करता है अर्थात् लकड़ी, मुष्टी और पैर वगैरहसे प्रहार करनेका संकेत नहीं करता और न हिंसाको देखकर अथवा सुनकर खुशीसे सिर हिलाता है, यदि कोई अपराधीकी भी जान लेता हो, या मल्लयुद्ध होता हो तो उसे उत्साह पूर्वक देखता नहीं रहता और न कानोंसे सुनकर ही प्रसन्न होता है ९ | इसप्रकार नौ विकल्पों से त्रस जीवोंकी हिंसा नहीं करनी चाहिये । तथा बिना आवश्यकताके जमीन खोदना, पानी बहाना, आग जलाना, हवा करना और वनस्पति काटना आदि कार्यभी नहीं करने चाहिये । अर्थात् बिना जरूरत के स्थावर जीवोंको भी पीड़ा नहीं देनी चाहिये । यह अहिंसा
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व्रत है । इसके पाँच अतिचार ( दोष ) भी छोड़ने चाहियें। वे अतिचार इस प्रकार हैं- बन्ध, वध, छेद, अतिभारारोपण और अन्नपाननिरोध । प्राणीको रस्सी सांकल वगैरह से ऐसा बाँध देना, जिससे वह यथेच्छ चल फिर न सके यह बन्ध नामका अतिचार है । पालतु जानवरोंको भी जहाँ तक संभव हो खुला ही रखना चाहिये और यदि बांधना आवश्यक हो तो निर्दयतापूर्वक नहीं बाँधना चाहिये । लकड़ी, दण्डे, बेंत वगैरह से निर्दयतापूर्वक पीटना वध नामक अतिचार है। कान, नाक, अंगुलि, लिंग, आंख वगैरह अवयवोंको छेदना भेदना छेद नामका अतिचार है। किसी अवयवके विषाक्त होजानेपर दयाबुद्धिसे डाक्टरका उसे काट डालना इसमें सम्मिलित नहीं है। लोभमें आकर घोड़े वगैरहपर उचित भारसे अधिक भार लादना या मनुष्योंसे उनकी शक्तिके बाहर काम लेना अतिभारारोपण नामका अतिचार है। गाय, भैंस, बैल, घोड़ा, हाथी, मनुष्य, पक्षी वगैरह को भूख प्यास वगैरहकी पीड़ा देना अन्नपाननिरोध नामका अतिचार है। ये और इस प्रकारके अतिचार अहिंसाणुव्रतीको छोड़ने चाहिये । इस व्रतमें यमपाल नामका चाण्डाल प्रसिद्ध हुआ है । उसकी कथा इस प्रकार है- पोदनापुर नगर में राजा महाबल राज्य करता था । राजाने अष्टाह्निकाकी अष्टमी के दिन से आठ दिन तक जीववध न करनेकी घोषणा कर रखी थी। राजपुत्र बलकुमार
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