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खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
[गा० ३३०वैराग्यभावितमनाः, भवागभोगेषु विरक्तचित्त इत्यर्थः । तथा वसुनन्दिसिद्धान्तिना गाथात्रयेण दर्शनिकस्य लक्षणमुक्तं च । "पचुंबरसहिदाई सत्त वि वसणाइ जो विवजेइ । सम्मत्तविसुद्धमई सो दसणसावओभणिओ॥ उंबरवडपिंपलपिंपरीयसंधाणतरूपसूणाई । णिच तससंसिद्धाई ताई परिवजिदव्वाइं ॥ जूवं मज मंसं वेसा पारद्धि चोरपरदारं । दुग्गइगमणस्सेदाणि हेदुभूदाणि पावाणि ॥” इति दर्शनिकश्रावकस्य द्वितीयो धर्मः प्ररूपितः ॥ ३२९ ॥ अथ व्रतिकश्रावकं प्रकाशयति
पंचागुंषय-धारी गुण-वय-सिक्खा-वएहिं संजुत्तो।
दिढ-चित्तो सम-जुत्तो णाणी वय-सावओ होदि ॥ ३३०॥ [छाया-पञ्चाणुव्रतधारी गुणवतशिक्षावतैः संयुक्तः । दृढचित्तः शमयुक्तः ज्ञानी व्रतश्रावकः भवति ॥] भवति अस्ति । कोऽसौ। व्रतश्रावकः। शृणोति जिनोदितं तत्त्वमिति श्रावकः, व्रतेन नियमेन अहिंसादिलक्षणेनोपलक्षितः श्रावकः व्रतश्रावकः । कथंभूतः । पञ्चाणुव्रतधारी, अणुव्रतानि स्थूलहिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहविरतिलक्षणानि पञ्च च तानि अणुव्रतानि पञ्चाणुव्रतानि धरतीत्येवंशीलः पञ्चाणुव्रतधारी, पञ्चस्थूलअहिंसादिवतधारी । पुनः कीदृक् । गुणवतशिक्षाव्रतैः संयुक्तः, गुणवतैः दिखत १ देशव्रत २ अनर्थदण्डविरतिव्रतैत्रिभिः, शिक्षाव्रतैः सामायिक १ प्रोषधोपवास २ भोगोपभोगवस्तुसंख्या ३ अतिथिसंविभाग ४ व्रतैश्चतुर्भिश्च संयुक्तः सहितः । पुनः कथंभूतः । दृढचित्तः निश्चलमनाः उपसर्गपरीषहादिभिरखण्डितव्रतः । पुनः किंलक्षणः । शमयुक्तः उपशमसाम्यसंवेगादिपरिणामः । पुनः कीदृक् । ज्ञानी आत्मशरीरयोर्भेद. विज्ञानसंयुक्तः शुभाशुभपुण्यपापहेयोपादेयज्ञानविज्ञानवान् ॥ ३३० ॥ अथ प्रथमाणुव्रतं गाथाद्वयेनाह
जो वावरेई सदओ अप्पाण-समं परं पि मण्णंतो।
जिंदण-गरहण-जुत्तो परिहरमाणो महारंभे ॥ ३३१॥ इस लोक और परलोकमें विषयभोगकी प्राप्तिकी भावनासे व्रतोंका पालन नहीं करना चाहिये, क्यों कि जैन व्रताचरण भोगोंसे निवृत्तिके लिये हैं, भोगोंमें प्रवृत्तिके लिये नहीं । तीसरे, उसका मन संसार के भोगोंसे उदासीन होना चाहिये । मनमें वैराग्य न होते हुए भी जो लोग त्यागी बन जाते हैं वे त्यागी बनकर भी विषयकषायका पोषण करते हुए पाये जाते हैं। इसीसे शास्त्रोंमें शल्यरहितको ही व्रती कहा है । अतः इन तीन बातोंके साथ जो पूर्वोक्त व्रतोंको पालता है वही दर्शनिक श्रावक है । किन्तु जो मनमें राग होते हुए भी किसी लौकिक इच्छासे त्यागी बन जाता है वह व्रती नहीं है । आचार्य वसुनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्तीने तीन गाथाओंके द्वारा दर्शनिकका लक्षण इस प्रकार कहा है-'जो सम्यग्दृष्टि जीव पाँच उदुम्बर फलोंका और सात व्यसनोंका सेवन नहीं करता वह दर्शनिक श्रावक है । १ । गूलर, वड़, पीपल, पिलखन और पांकर ये पाँच उदुम्बर फल, अचार तथा वृक्षोंके फूल इन सबमें सदा त्रस जीवोंका वास रहता है, अतः इन्हें छोड़ना चाहिये । २ । जुआ, मद्य, मांस, वेश्या, शिकार, चोरी, परस्त्री ये सात पाप दुर्गतिमें गमनके कारण हैं, अतः इन्हें भी छोड़ना चाहिये । ३ । इस प्रकार द्वितीय दर्शनिक श्रावकका खरूप बतलाया ॥ ३२९ ।। अब व्रती श्रावकका खरूप बतलाते हैं । अर्थ-जो पाँच अणुव्रतोंका धारी हो, गुणव्रत और शिक्षाव्रतोंसे युक्त हो, दृढ़चित्त समभावी
और ज्ञानी हो वह व्रती श्रावक है ॥ भावार्थ-जो जिन भगवानके द्वारा कहे हुए तत्त्वोंको सुनता है उसे श्रावक कहते हैं, और जो श्रावक पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतोंका धारी होता है उसे व्रती श्रावक कहते है [ वह उपसर्ग परीषह आदि आनेपर भी व्रतोंसे विचलित नहीं होता तथा साम्यभावी और हेय उपादेयका जानकार होता है] ॥ ३३० ॥ आगे दो गाथाओंसे प्रथम अणुव्रत
१ स वयेहिं । २ ग वावरण (वावारइ १) ३ ग महारंभो।
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