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________________ -२६५] १०. लोकानुप्रेक्षा १८९ व्यवहारं, भेदोपचारतया वस्तु व्यवहियते इति व्यवहारं, ग्रहणगमनयाचनवितरणादि वस्तु नित्यानित्यादिकं प्रसाधयति निर्मिनोति निष्पादयति, सोऽपि श्रुतज्ञानस्य स्याद्वादरूपस्य विकल्पः भेदः नयः कथ्यते । कथंभूतो नयः । लिङ्गसंभूतः लिङ्गेन हेतुरूपेण भूयते स्म लिङ्गभूतः परार्थानुमानरूपः नूतनचिह्नो वा । अथवा लिङ्गसंभूतो नयः कथ्यते ॥ २६४ ॥ अथ नानास्वभावयुक्तस्य वस्तुनः एकस्वभावग्रहणं नयापेक्षया कथ्यते इत्याह णाणा-धम्म- जुदं पि य एयं धम्मं पि वुच्चदे अत्थं । तस्से - विवखादोत्थि विवक्खाँ हुँ सेसाणं ॥ २६४ ॥ [ छाया - नानाधर्मयुतः अपि च एकः धर्मः अपि उच्यते अर्थः । तस्य एकविवक्षातः नास्ति विवक्षा खलु शेषाणाम् ॥ ] नानाधर्मयुक्तोऽपि अर्थ: अनेकप्रकारस्वभावसहितोऽपि जीवादिपदार्थः स्वद्रव्यादिग्राहकेण अस्तिस्वभावः, परद्रव्यादिग्राहकेण नास्तिस्वभावः, उत्पादव्ययगौणत्वेन सत्ताग्राहकेण नित्यखभावः, केनचित्पर्यायार्थिकेन अनित्यस्वभावः । एवमेकानेकभेदाभेदचेतनाचेतनमूर्त मूर्तादिखंभावयुक्तोऽपि जीवादिपदार्थः । तस्य अर्थस्य एको धर्मः, जीवो नित्य एव, जीवोsस्त्येव इत्याद्येकस्वभावविशिष्टः उच्यते कथ्यते । कुतः एकधर्मविवक्षातः एकस्वभाववक्तुमिच्छातः, न तु अनेकधर्माणामभावात् । हु स्फुटम् । शेषाणाम् अनित्यत्वनास्तित्वाद्यनेकधर्माणां तत्र वस्तुनि विवक्षा नास्ति ॥ २६४ ॥ अथ धर्मवाचकशब्दतज्ज्ञानानां नयत्वं दर्शयति Jain Education International सोचिये एक्को धम्मो वाचय- सद्दो वि तस्स धम्मस्स । जं जादि तं नाणं ते तिण्णि वि णय-विसेसा य ॥ २६५ ॥ पर्यायबुद्धि लोग पर्यायकी अपेक्षा वस्तुको नष्ट हुआ अथवा उत्पन्न हुआ देखते हैं और द्रव्यदृष्टि लोग उसे ध्रुव मानकर वैसा व्यवहार करते हैं, अतः लोकव्यवहार नयाधीन है। किन्तु सच्चा नय वस्तुके जिस एक धर्मको ग्रहण करता है उसे युक्तिपूर्वक ग्रहण करता है । जैसे वस्तुको यदि सत् रूपसे ग्रहण करता है तो उसमें हेतु देता है कि अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा वस्तु सत्रूप है । इस तरह नय हेतुजन्य है । इसीसे अष्टसहस्रीमें श्रुतज्ञानको अहेतुवाद और नयको हेतु - वाद कहा है । जो बिना हेतुके वस्तुके किसीभी एक धर्मको स्वेच्छासे ग्रहण करता है वह नय नहीं 1 ॥ २६३ ॥ आगे, नाना स्वभाववाली वस्तुके एक स्वभावका ग्रहण नयकी अपेक्षासे कैसे किया जाता है, यह बतलाते हैं । अर्थ - नाना धर्मों से युक्तभी पदार्थके एक धर्मको ही नय कहता है; क्योंकि उस समय उसी धर्मकी विवक्षा है, शेष धर्मोकी विवक्षा नहीं है । भावार्थ - यद्यपि जीवादि पदार्थ अनेक प्रकारके धर्मों से युक्त होते हैं- स्वद्रव्य आदिकी अपेक्षा सत्स्वभाव हैं, पर द्रव्य आदिकी अपेक्षा असस्वभाव हैं, उत्पाद व्ययको गौण करके ध्रुवत्वकी अपेक्षा नित्य हैं, पर्यायकी अपेक्षा अनित्य हैं । इस तरह एकस्व, अनेकत्व, भेद, अभेद, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व आदि अनेक धर्मयुक्त हैं । किन्तु उन अनेक धर्मोमेंसे नय एकही धर्मको ग्रहण करता है। जैसे, जीव नित्य ही है या सत्स्वभाव ही है; क्योंकि उस समय वक्ताकी इच्छा उसी एक धर्मको ग्रहण करनेकी अथवा कहनेकी है । किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि वस्तुमें अनेक धर्म नहीं हैं इसलिये वह एक धर्मको ग्रहण करता है, बल्कि शेष धर्मोके होते हुए भी उनकी विवक्षा नहीं है इसीसे वह विवक्षित धर्मको ही ग्रहण करता ॥ २६४ ॥ आगे, वस्तुके धर्म, उसके वाचक शब्द तथा उसके ज्ञानको नय कहते हैं । अर्थ १ ल ग धम्मं पि, स धम्म पि । २ ल ग तस्सेव म तस्सेयं । ३ ल ग विवक्खो । ४ स हि । ५ म विय। ६ ल म स गतं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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