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१८८ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
[गा० २६३चलिता प्रतिपत्तिः इति संशयः संदेहः । शुक्तिकायां रजतज्ञानमिति विपर्यासः विपरीतः विभ्रमः । गच्छतः पुंसः तृणस्पर्शस्य सर्पो वा शंखला वा इति ज्ञानमनध्यवसायः मोहः । इत्यादिभिर्विवर्जितं श्रुतज्ञानम् । तथा चोक्तं श्रीसमन्तभद्रैः । 'स्थाद्वादकेवलज्ञाने सर्ववस्तुप्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत् ॥ इति ॥२६२॥ अथ लोकव्यवहारस्य नयात्मकं दर्शयति
लोयाणं ववहारं धम्म-विवक्खाई जो पसाहेदि।
सुय-णाणस्स वियप्पो सो वि णओ लिंग-संभूदो ॥ २६३ ॥ [ळाया-लोकानां व्यवहार धर्मविवक्षया यः प्रसाधयति । श्रतज्ञानस्य विकल्पः सः अपि नयः लिङ्गसंभतः॥1. 4ः वादी प्रतिवादी वा धर्मविवक्षया अस्तिनास्तिनित्यानित्यभेदाभेदेकानेकाद्यनेकखभावं वक्तुमिच्छया लोकानां जनानां
चांदी जानना विपर्यय ज्ञान है । मार्गमें चलते हुए किसी वस्तुका पैरमें स्पर्श होने पर 'कुछ होगा' इस प्रकारके ज्ञानको अनध्यवसाय कहते हैं । इन तीनों मिथ्याज्ञानोंसे रहित जो ज्ञान अनेकान्त रूप वस्तुको परोक्ष जानता है वही श्रुतज्ञान है । पहले श्रुतज्ञानको परोक्ष बतलाया है, क्यों कि वह मनसे होता है तथा मतिपूर्वकही होता है । श्रुतज्ञानके दो मूल भेद हैं-एक अनक्षरात्मक और एक अक्षरात्मक । स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु इन चार इन्द्रियोंसे होनेवाले मतिज्ञानपूर्वक जो श्रुतज्ञान होता है वह अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान है । तथा शब्दजन्य मतिज्ञानपूर्वक होनेवाले श्रुतज्ञानको अक्षरात्मक श्रुतज्ञान कहते हैं । शास्त्रसे तथा उपदेश वगैरहसे जो विशेष ज्ञान होता है वह सब श्रुतज्ञान है । शास्त्रोंमें सभी वस्तुओंके अनेकान्तस्वरूपका वर्णन होता है । अतः श्रुतज्ञान समी वस्तुओंको शास्त्र वगैरहके द्वारा जानता है, किन्तु शास्त्रके बिना अथवा जिनके वचनोंका सार शास्त्रमें हैं उन प्रत्यक्षदर्शी केवलीके बिना सब वस्तुओंका ज्ञान नहीं हो सकता । इसीसे समन्तभद्र खामीने आप्तमीमांसामें श्रुतज्ञानका महत्त्व बतलाते हुए कहा है-श्रुतज्ञान और केवलज्ञान, दोनों ही समस्त वस्तुओंको प्रकाशित करते हैं । अन्तर केवल इतना ही है कि श्रुतज्ञान परोक्ष रूपसे जानता है और केवलज्ञान प्रत्यक्ष रूपसे जानता है । जो श्रुतज्ञान और केवलज्ञानका विषय नहीं है वह अवस्तु है । अर्थात् ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो इन दोनों ज्ञानोंके द्वारा न जानी जासके ॥ २६२ ॥ श्रुतज्ञानका स्वरूप बतलाकर श्रुतज्ञानके भेद नयका स्वरूप बतलाते हैं । अर्थ-जो वस्तुके एक धर्मकी विवक्षासे लोकव्यवहार को साधता है वह नय है । नय श्रुतज्ञानका भेद है तथा लिंगसे उत्पन्न होता है । भावार्थ-लोकव्यवहार नयके द्वारा ही चलता है; क्यों कि दुनियाके लोग किसी एक धर्मकी अपेक्षासे ही वस्तुका व्यवहार करते हैं । जैसे, एक राजाके पास सोनेका घडा था । उसकी लडकीको वह बहुत प्यारा था । वह उससे खेला करती थी। किन्तु राजपुत्र उस घडेको तुडवाकर मुकुट बनवानेकी जिद किया करता था । उसे घडा अच्छा नहीं लगता था । एक दिन राजाने घडेको तोड कर मुकुट बनवा दिया। घडेके टूटनेसे लडकी बहुत रोई, और मुकुटके बन जानेसे राजपुत्र बहुत प्रसन्न हुआ । किन्तु राजाको न शोक हुआ और न हर्ष हुआ । इस लौकिक दृष्टान्तमें लडकीकी दृष्टि केवल घडेके नाश पर है, राजपुत्रकी दृष्टि केवल मुकुटकी उत्पत्ति पर है और राजाकी दृष्टि सोने पर है । इसी तरहसे दुनियाके
१व विवषाद। २ पयासेहि । ३ म ग णाणिस्त ।
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