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________________ -९७ ] ८. संवरानुप्रेक्षा ४७ [छाया-सम्यक्त्वं देशवतं महाव्रत तथा जयः कषायाणाम् । एते संवरनामान: योगाभावः तथा एव ॥1 एते पूर्वोक्ताः संवरनामानः, आस्रवनिरोधः संवरः, तदभिधानाः । ते के। सम्यक्त्वम् उपशमवेदकक्षायिकदर्शन, देशवतं देशसंयमं श्राद्धद्वादशवतादिरूपम्, तह तथा, महाव्रतम् अहिंसादिपञ्चमहाव्रतरूपम् , तथा कषायाणां क्रोधादीनां पञ्चविंशतिमेदभिन्नानां जयः निग्रहः, तथैव योगाभावः मनोवचनकाययोगानां निरोधः ॥ ९५॥ गुत्ती समिदी धम्मो अणुवेक्खा तह य परिसंह-जओ वि । ~ उक्किट्ठ चारित्तं संवर-हेर्दू विसेसेण ॥ ९६ ॥ [छाया-गुप्तयः समितयः धर्मः अनुप्रेक्षाः तथा च परीषहजयः अपि । उत्कृष्टं चारित्रं संवरहेतवः विशेषेण ॥ विशेषेण उत्कर्षेण, एते संवरहेतवः आस्रवनिरोधकारणानि । ते के । गुप्तयः मनोवचनकायगोपनलक्षणास्तिस्रः, समितयः ईर्याभाषेषणादाननिक्षेपणोत्सर्गलक्षणाः पञ्च, धर्मः उत्तमक्षमादिदशप्रकारः, तथा अनुप्रेक्षाः अनित्यादयो द्वादश, अपि पुनः, परीषहजयः परीपहाणां क्षुधादीनां जयः विजयः उत्कृष्टं चारित्रं सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसांपराय: यथाख्यातलक्षणम । तथा चोकं श्रीउमाखामिदेवेन । 'स गुप्तिसमितिधमानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः । अथ गुप्त्यादीन् विशदयति गुत्ती जोग-णिरोहो समिदी य पमाद-वजणं चेव । धम्मो दया-पहाणो सुतत्ते-चिंता अणुप्पेहाँ ॥ ९७॥ कहा था । सो चौथे गुणस्थानमें सम्यक्त्वके होनेपर मिथ्यात्वका निरोध होजाता है । पाँचवें गुणस्थानमें पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षावत, इस प्रकार बारह व्रतरूप देशसंयमके होनेपर अविरतिका एकदेशसे अभाव होजाता है। छठे गुणस्थानमें अहिंसादि पाँच महाव्रतोंके होने पर अविरतिका पूर्ण अभाव होजाता है । सातवें गुणस्थानमें अप्रमादी होनेके कारण प्रमादका अभाव होजाता है । ग्यारहवें गुणस्थानमें २५ कषायोंका उदय न होनेसे कषायोंका संवर होजाता है। और चौदहवें गुणस्थानमें योगोंका निरोध होनेसे योगका अभाव होजाता है । अतः मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगके विरोधी होनेके कारण सम्यक्त्व, देशव्रत, महाव्रत, कषायजय और योगाभाव संवरके कारण हैं । इसी लिये उन्हें संवर कहा है ॥ ९५ ॥ अर्थ-गप्ति. समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, और उत्कृष्ट चारित्र, ये विशेषरूपसे संवरके कारण हैं | भावार्थ-पूर्व गाथामें जो संवरके कारण बतलाये हैं, वे साधारण कारण हैं, क्योंकि उनमें प्रवृत्तिको रोकनेकी मुख्यता नहीं है। और जबतक मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिको रोका नहीं जाता, तबतक संघरकी पूर्णता नहीं हो सकती । किन्तु इस गाथामें संवरके जो कारण बतलाये हैं, उनमें निवृत्तिकी ही मुख्यता है । इसी लिये उन्हें विशेष रूपसे संवरके कारण कहा है । मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिको रोकनेको गुप्ति कहते हैं। इसीसे गुप्तिके तीन भेद होगये हैं-मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति । समितिके पाँच भेद हैं—ईया, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और उत्सर्ग । धर्म उत्तम क्षमादि रूप दस प्रकारका है । अनुप्रेक्षा अनित्य, अशरण आदि बारह हैं । परीषह क्षुधा, पिपासा आदि बाईस हैं । उत्कृष्ट चारित्रके पाँच भेद हैं-सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात । तत्त्वार्थसूत्रके ९ वें अध्यायमें उमास्वामी महाराजने संवरके यही कारण विस्तारसे बतलाये हैं ॥९६॥ गुप्ति आदिको स्पष्ट करते हैं। अर्थ-मन, वचन, और कायकी १ ब अणुवेहा, स ग विक्खा। २ ल म ग तह परीसह, स तह य परीसह । ३ व हेस। ४ म स पमाय५ व मृतत्थ-, र स स मुतच्च-। ६ब अणुवेहा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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