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खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
[गा० ३२३. संसारानुप्रेक्षा अथ संसारानुप्रेक्षां गाथाद्वयेन भावयति
एकं चयदि सरीरं अण्णं गिण्हेदि णव-णवं जीवो। पुणु पुर्ण अण्णं अण्णं गिण्हदि मुंचेदि बहु-वारं ॥ ३२ ॥ एवं जं संसरणं णाणा-देहेसु होदि जीवस्स ।
सो संसारो भण्णदि मिच्छ-कसाएहिँ जुत्तस्स ॥ ३३ ॥ [छाया-एक त्यजति शरीरमन्यत् गृह्णाति नवनवं जीवः । पुनः पुनः अन्यत् अन्यत् गृह्णाति मुञ्चति बहुवारम् ॥ एवं यत्संसरणं नानादेहेषु भवति जीवस्य । स संसारः भण्यते मिथ्याकषायैः युक्तस्य ॥] एवं पूर्वोक्तगाथाप्रकारेण, नानादेहेषु एकेन्द्रियायनेकशरीरेषु जीवस्य आत्मनः यत्संसरणं परिभ्रमणं स प्रसिद्धः संसारो भवो भण्यते आत्मा शरीरसे पृथक् वस्तु है। वह अजर और अमर है । शरीरके उत्पन्न होनेपर न वह उत्पन्न होता है और न शरीरके छूटनेपर नष्ट होता है । अतः उसके विनाशके भयसे शरणकी खोजमें भटकते फिरना और अपनेको अशरण समझकर घबराना अज्ञानता है । वास्तवमें आत्मा स्वयं ही अपना रक्षक है, और स्वयं ही अपना घातक है; क्योंकि जब हम काम क्रोध आदिके वशमें होकर दूसरोंको हानि पहुँचानेपर उतारू होते हैं, तो पहले अपनी ही हानि करते हैं; क्योंकि काम क्रोध आदि हमारी सुख
और शान्तिको नष्ट कर देते हैं, तथा हमारी बुद्धिको भ्रष्ट करके हमसे ऐसे ऐसे दुष्कर्म करा डालते हैं, जिनका हमें बुरा फल भोगना पड़ता है। अतः आत्मा स्वयं ही अपना घातक है । तथा यदि हम काम क्रोध आदिको वशमें करके, उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य आदि सद्गुणोंको अपनाते हैं और अपने अन्दर कोई ऐसा विकार उत्पन्न नहीं होने देते, जो हमारी सुख-शान्तिको नष्ट करता हो, तथा हमारी बुद्धिको भ्रष्ट करके हमसे दुष्कर्म करवा डालता हो, तो हम स्वयं ही अपने रक्षक हैं । क्योंकि वैसा करनेसे हम अपनेको दुर्गतिके दुःखोंसे बचाते हैं और अपनी आत्माकी उन्नतिमें सहायक होते हैं । यह स्मरण रखना चाहिये, कि आत्माका दुर्गुणोंसे लिप्त होजाना ही उसका घात है और उसमें सद्गुणोंका विकास होना ही उसकी रक्षा है; क्योंकि आत्मा एक ऐसी वस्तु है जो न कभी मरता है और न जन्म लेता है । अतः उसके मरणकी चिन्ता ही व्यर्थ है । इसीसे ग्रन्थकारने बतलाया है, कि रत्नत्रयका शरण लेकर आत्माको उत्तम क्षमादि रूप परिणत करना ही संसारमें शरण है, वही आत्माको संसारके कष्टोंसे बचा सकता है ॥ ३१ ॥ इति अशरणानुप्रेक्षा ॥ २ ॥ अब दो गाथाओंसे संसारअनुप्रेक्षाको कहते हैं
अर्थ-जीव एक शरीरको छोड़ता है और दूसरे नये शरीरको ग्रहण करता है। पश्चात् उसे भी छोड़कर दूसरा नया शरीर धारण करता है । इस प्रकार अनेक बार शरीरको ग्रहण करता है और अनेक बार उसे छोड़ता है । मिथ्यात्व कषाय वगैरहसे युक्त जीवका इस प्रकार अनेक शरीरोंमें जो संसरण (परिभ्रमण ) होता है, उसे संसार कहते हैं ॥ भावार्थ-तीसरी अनुप्रेक्षाका वर्णन प्रारम्भ
१स पुण पुण। २ब मुच्चेदि। ३ल मग हवदि।
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