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२. अशरणानुप्रेक्षा दंसण-णाण-चरित्तं सरणं सेवेह परम-सद्धाए।
अण्णं किं पि ण सरणं संसारे संसरंताणं ॥ ३० ॥ [छाया-दर्शनज्ञानचारित्रं शरणं सेवध्वं परमश्रद्धया । अन्यत् किमपि न शरणं संसारे संसरताम् ॥] हे भव्य इत्यध्याहार्यम् , परमश्रद्धया सर्वोत्कृष्टपरिणामेन सेवख भजस्व । किम् । दर्शनज्ञानचारित्रं शरणं व्यवहारनिश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रं शरणं, संसारे भवे संसरतां भ्रमतां जीवानाम् अन्यत् किमपि न शरणम आश्रयः ॥ ३०॥
अप्पा णं पि य सरणं खमादि-भावेहिँ परिणदो होदि ।
तिष-कसायाविट्ठो अप्पाणं हणदि अप्पेण ॥ ३१ ॥ [छाया-आत्मा ननु अपि च शरणं क्षमादिभावैः परिणतः भवति । तीव्रकषायाविष्टः आत्मानं हन्ति आत्मना ॥ भवति क्षमादिभावैः उत्तमक्षमादिखभावैः परिणतम् एकत्वभावं गतम् आत्मानं स्वस्वरूपम् , अपि एवकारार्थे, संशरणम् आश्रयः । च पुनः, तीव्रकषायाविष्टः तीव्रकषाया अनन्तानुबन्धिक्रोधादयः तैराविष्टः युक्तः हन्ति हिनस्ति । कम् आत्मानं खखरूपम् । केन । आत्मना स्वस्वरूपेण ॥३१॥
स जयतु शुभचन्द्रश्चन्द्रवत्सत्कलापः खमतसुमतिकीर्तिः सन्मतिः सत्पदो यः। प्रतपतु तपनातेस्तापकः खात्मवेत्ता हरतु भवसमुत्था वेदनां वेदनाढ्यः ॥ इति श्रीस्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षायास्त्रिविद्यविद्याधरषड्वाषाकवि
चक्रवर्तिभट्टारकश्रीशुभचन्द्रदेव विरचितटीकायाम् अशरणानुप्रेक्षायां द्वितीयोऽधिकारः ॥२॥
इन्द्र अपनेको भी मृत्युसे नहीं बचा सकता । यदि वह ऐसा कर सकता तो कभी भी उस स्थानको न छोड़ता, जहाँ संसारके उत्तमसे उत्तम सुख भोगनेको मिलते हैं, जिन्हें प्राप्त करनेके लिये संसारके प्राणी लालायित रहते हैं ॥ २९ ॥ अर्थ-हे भव्य ! सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र शरण हैं। परम श्रद्धाके साथ उन्हींका सेवन कर । संसारमें भ्रमण करते हुए जीवोंको उनके सिवाय अन्य कुछ भी शरण नहीं है । भावार्थ-संसारकी अशरणताका चित्रण करके ग्रन्थकार कहते हैं, कि संसारमें यदि कोई शरण हैं तो व्यवहार और निश्चयरूप सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है । अतः प्रत्येक भव्यको उन्हींका सेवन करना चाहिये । जीव, अजीव आदि तत्त्वोंका श्रद्धान करना व्यवहारसम्यक्त्व है, और व्यवहारसम्यक्त्वके द्वारा साधने योग्य वीतरागसम्यक्त्वको निश्चयसम्यक्त्व कहते हैं । आत्माके और परपदार्थोंके संशय, विपर्यय और अनध्यवसायसे रहित ज्ञानको व्यवहारसम्यग्ज्ञान कहते हैं, और अपने खरूपके निर्विकल्प रूपसे जाननेको अर्थात् निर्विकल्पख संवेदनज्ञानको निश्चयज्ञान कहते हैं । अशुभ कार्योंसे निवृत्त होना और शुभकार्योंमें प्रवृत्त होना व्यवहार सम्यक्चारित्र है, और संसारके कारणोंको नष्ट करनेके लिये ज्ञानीके बहिरङ्ग और अन्तरङ्ग क्रियाओंके रोकनेको निश्चयचारित्र कहते हैं ॥ ३०॥ अर्थ-आत्माको उत्तम क्षमा आदि भावोंसे युक्त करना भी शरण है । जिसकी कषाय तीव्र होती है, वह स्वयं अपना ही घात करता है ॥ भावार्थ-संसारके मूढ़ प्राणी शरीरको ही आत्मा समझकर उसकी रक्षाके लिये शरणकी खोजमें भटकते फिरते हैं । किन्तु
१ल म सग सेवेहि। २ ल स ग परिणदं। ३ म गाथाके अन्त में 'असरणानुप्रेक्षा ॥२॥ ४ ल स्वरूपम् ।
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