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विषय सूची
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पृष्ठ अवसर्पिणीके प्रथम कालके आदिमें
उत्कृष्ट अन्तरात्मा तथा उसके भेद
१३१ तथा छठे कालके अन्तमें मनुष्यों के मध्यम अन्तरात्मा शरीरकी ऊंचाई
जघन्य
, एकेन्द्रिय आदि जीवोंके शरीरकी
परमात्माका स्वरूप
१३३ जघन्य अवगाहनाका प्रमाण ११२-११४ 'पर' शब्दकी व्याख्या
१३४ जीव शरीरप्रमाण भी है और सर्वगत जीवको अनादि शुद्ध माननेमें दोष १३५
११५ सब जीव कर्मबन्धनको काटकर ही समुद्धात और उसके भेदोंका स्वरूप ११६ ___ शुद्ध होते हैं।
१३६ जीवके सर्वव्यापी होनेका निषेध ११७ बन्धका स्वरूप जीव ज्ञानस्वभाव है, ज्ञानसे भिन्न
सब द्रव्योंमें जीव ही परमतत्त्व है। १३७ नहीं है।
११८ जीव अन्तस्तत्त्व है, शेष सब बाह्यज्ञानको जीवसे सर्वथा भिन्न माननेपर . . तत्त्व है।
१३८ गुणगुणी भाव नहीं बनता।
यह लोकाकाश पुद्गलोंसे भरा हुआ है। जीव और ज्ञानमें गुणगुणी भावसे भेद है। ११९ पुद्गलोंके भेद प्रभेद रूप
१३९ ज्ञान भूतोंका विकार नहीं है। १२० पुद्गलका स्वरूप जीवको न माननेवाले चार्वाकको दूषण , पुद्गलका जीवके प्रति उपकार १४२ जीवके सद्भावमें युक्ति
१२१ जीवका जीवके प्रति उपकार १४४ जीव शरीरमें रहता है इससे दोनोंको पुद्गल द्रव्यकी महती शक्ति १४५
लोग एक समझ लेते हैं; १२२ धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्यका उपकार १४६ किन्तु शरीरसे मिला होनेपर भी
आकाशका स्वरूप और उसके दो भेद १४७ जीव ही जानता देखता है। १२२ सभी द्रव्योंमें अवगाहन शक्ति है। १४८ जीव और शरीरमें अभेद माननेका
यदि शक्ति न होती तो एक प्रदेशमें भ्रम
१२३ ___ सब द्रव्य कैसे रहते। १४९ जीव कर्ता है।
१२४-१२५ काल द्रव्यका स्वरूप भोक्ता है।
१२६ द्रव्योंमें परिणमन करनेकी स्वाभाविक जीव पुण्य ओर पापरूप है। १२७ __शक्ति है।
१५० जीव तीर्थ है।
१२८ सभी द्रव्य परस्परमें एक दूसरेके जीवके तीन भेद तथा परमात्माके
सहायक होते हैं।
१५१ दो भेद
१२९ । द्रव्योंकी शक्तियोंका निषेध कौन कर बहिरात्माका स्वरूप
सकता है।
१५२ अन्तरात्माका स्वरूप तथा उसके भेद , व्यवहार कालका स्वरूप
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