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________________ फासरसघाणणयणे सोदे चित्तिंदिये य अणिवित्ती। इदि छच्चेव विरमणं इंदियविसयाण णायव्वा ।।146|| अन्वय - फासरसघाणणयणे सोदे चित्तिंदिये अणिवित्ती इदि छच्चेव विरमणं इंदियविसयाण णायव्वा । अर्थ- स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र इन इन्द्रियों और मन के विषयों से अनिर्वृति अर्थात् प्रवृत्ति करना इस प्रकार छह प्रकार की अविरति जानना चाहिये। पुढवी आऊ तेऊ वाउवणप्फदि तसेसु जीवेसु । छसु वि जदो णो विरई ते पाणि असंजमा होति।।147|| अन्वय - पुढवी आऊ तेऊ वाउवणप्फदि तसेसु जीवेसु वि छसु जदो णो विरई ते पाणि असंजमा होति । अर्थ -पृथ्वीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक वनस्पतिकायिक और त्रस इन छह प्रकार के जीवों की हिंसा से जो विरत नहीं है । वे प्राणी असंयमी होते हैं। थीभत्तरायजणवदकहा य कोहादिगा य चत्तारि । चत्तारिदिय पणगं णेहो णिद्दा य एगेगं ।।1481 अन्वय - थीभत्तरायजणवदकहा य चत्तारि कोहादिगा चत्तारि इंदिय पणगं णेहो णिद्दा य एगेगं।। अर्थ-स्त्री-कथा, भोजन-कथा, अवनिपाल-कथा, राज-कथा इस प्रकार चार कथायें, क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषायें, पाँच इन्द्रियाँ, स्नेह और निद्रा। इस प्रकार प्रमाद के पन्द्रह भेद जानना चाहिये। सिलभेदथंभवेणुवमूलक्किमिरायकंवलसमाणा । अणकोहादी चउरो सव्वेदे णिरयगदिहेदु ||149।। ( 42 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002708
Book TitleParamagamsara
Original Sutra AuthorShrutmuni
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherVarni Digambar Jain Gurukul Jabalpur
Publication Year2000
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, H000, H999, P000, & P999
File Size3 MB
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