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________________ अन्वय - जे चत्तोभयगंथा सुद्धप्परया णिज्जिदकसाया हु उग्गतवखविदकम्मा ते जीवा जांति सिद्धिगदि । अर्थ-जिन जीवों ने भय और सम्पूर्ण परिग्रहों का परित्याग कर दिया है। शुद्धात्मा में रत हैं , कषायों को जीत लिया है तथा उग्रतप के बल से क्षय कर दिया है कर्मों का जिन्होनें, वे जीव सिद्धगति को प्राप्त करते हैं। पावेण णरयतिरयं पुण्णेण य जांति देवगदिसोक्खं । मिस्सेणयमणुयगदिंदोहिंखयदोहुणिव्वाणं॥140II अन्वय- पावेण णरयतिरयं पुण्णेण य देवगदिसोक्खं जांति मिस्सेण य मणुयगदिं दोहिं खयदो हु णिव्वाणं । अर्थ -पाप कर्मों से जीव नरक और तिर्यंच गति को तथा पुण्य के फलस्वरूप देवगति के सुखों को प्राप्त करता है। मिश्र अर्थात् पुण्य - पाप से मनुष्य गति और पुण्य और पाप इन दोनों के क्षय से निर्वाण प्राप्त करता है। इति जीवतत्त्वम्। तच्चमजीवं पंचवियप्पं धम्मो अधम्म आया । कालो चेदि अमुत्ता चउरेदे पोग्गलो मुत्तो ।।141|| अन्वय - तच्चमजीवं पंचवियप्पं धम्मो अधम्म आयासं कालो चेदि अमुत्ता चउरेदे पोग्गलो मुत्तो। अर्थ- वह अजीव तत्त्व पाँच प्रकार का है, धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल । प्रारम्भ के चार अमूर्त तथा पुद्गल द्रव्य मूर्त है। गदि ठाणोग्गहवत्तणकिरियुवयारो दुहोदिधम्मचऊ। फासरसगंधवण्णगुणेहि जुदो पुग्गलो दव्वो ||142|| अन्वय - धम्म चऊ गदि ठाणोग्गहवत्तणकिरियुवयारो दु फासरसगंधवण्णगुणेहि जुदो पुग्गलो दव्यो । ( 40 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002708
Book TitleParamagamsara
Original Sutra AuthorShrutmuni
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherVarni Digambar Jain Gurukul Jabalpur
Publication Year2000
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, H000, H999, P000, & P999
File Size3 MB
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