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________________ अर्थ - कर्म रूपी पर्वतों को भेदन करने वाले तथा पदार्थों के समूह को अच्छी तरह जानने वाले ऐसे महावीर भगवान को प्रणाम करके मैं श्रुतमुनि क्रम से तत्त्वों के स्वरूप का निरूपण करनेवाले इस शास्त्र को कहूँगा। जीवाजीवा आसवबंधणसंवरणणिज्जरा मोक्खा। तच्चं जं वत्थूणं होइ सरूवं तु तं तच्चं ॥92|| अन्वय - जीवाजीवा आसवबंधणसंवरणणिज्जरा मोक्खा तच्चं जं वत्थूणं सरूवं तु तं तच्चं होई । अर्थ-जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये तत्त्व हैं । जो वस्तु का स्वरूप है वही तत्त्व है। पणसंखिंदियपाणा मणबलवयणबलकायबलमेव । तिण्णेव बलप्पाणा आउगमुस्सासपाणो दि।।93|| अन्वय - पणसंखिंदियपाणा मणबलवयणबलकायबलमेव तिण्णेव बलप्पाणा आउगमुस्सासपाणो दि। अर्थ - पाँच इन्द्रिय प्राण, मनबल , वचन बल और काय बल तीन ही बल प्राण, आयु और श्वासोच्छ्वास प्राण इस प्रकार दस प्राण है। दसपाणेहि अतीदे दव्वेहिं जीविदो हु भावीये । जीविस्सदि ववहारोजीवदि सो वट्टमाणयेजीवो।।94|| अन्वय - ववहारो दव्वेहिं दसपाणेहि अतीदे जीविदो भावीये जीविस्सदि वट्टमाणये जीवदि सो जीवो। अर्थ – व्यवहार नय की अपेक्षा से जो द्रव्य रूप दस प्राणों के द्वारा अतीतकाल में जीता था और भविष्य में उन्हीं दस प्राणों से जीयेगा, वर्तमान काल में जी रहा है वह जीव कहलाता है। तह णिच्चयदो चेयण णाणासुहादिहि भावपाणेहिं । तिक्काले जो जीवदि जीविस्सदिजीविदो हु सोजीवो।।95।। ( 27 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002708
Book TitleParamagamsara
Original Sutra AuthorShrutmuni
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherVarni Digambar Jain Gurukul Jabalpur
Publication Year2000
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, H000, H999, P000, & P999
File Size3 MB
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