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________________ अर्थ - धर्म, अधर्म, आकाश प्रत्येक की अखंड गंज्ञा जानना चाहिये । एक कालाणु अखंड और अनेक कालाणु खंड अर्थात् भेद रूप हैं। सत्थेण सुतिक्खेण ण छेत्तुं जो सक्कदे अखण्डो सो । तव्विवरीया खण्डा जीवा खलु पुग्गला य सक्किरिया ||52|| सेसचऊ णिक्किरिया जस्स य लोयम्हि गमणसत्ती हु। सो सक्किरियो भणियो तव्विवरीयो दु णिक्किरियो |53|| अन्वय - सुतिक्खेण सत्थेण जो छेत्तुं ण सक्कदे सो अखण्डो तव्विवरीया खण्डा । खलु जीवा पुग्गला य सक्किरिया सेसचऊ णिक्किरिया जस्स लोयम्हि गमणसत्ती सो सक्किरियो भणियो द तव्विवरीयो दु णिक्किरियों । अर्थ - सुतीक्ष्ण शस्त्र के द्वारा जो छेदा नहीं जा सकता है, वह अखण्ड अर्थात् अभेद रूप और उससे विपरीत अर्थात् शस्त्रादि के द्वारा जो छेदा जा सकता है वह खंड अर्थात् भेद रूप है । निश्चय से जीव और पुद्गल सक्रिय हैं। शेष चार निष्क्रिय हैं जिसकी लोक में गमन करने की शक्ति है उसे सक्रिय कहा गया है और गमन शक्ति से रहित निष्क्रिय कहलाता है । जीवादि पंच दव्वा बहुप्पदेसा हवंति णियमेण । कालस्सेगपदेसो तम्हा तस्स य अकायत्तं ||54|| अन्वय - णियमेण जीवादि पंच दव्वा बहुप्पदेसा हवंति कालस्सेगपदेसो तम्हा तस्स य अकायतं । अर्थ नियम से जीवादि पाँच द्रव्य बहुप्रदेशी हैं । काल द्रव्य एक प्रदेशी है, इसलिए उसके अकायत्व अर्थात् बहुप्रदेशीपना नहीं पाया जाता है । - अणुगपदेसत्थो वि य बहुखण्डाण ठाणदादुं च । सक्कदि उवयारा सो बहुप्पदेसी य कायो य ||55|| ( 16 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002708
Book TitleParamagamsara
Original Sutra AuthorShrutmuni
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherVarni Digambar Jain Gurukul Jabalpur
Publication Year2000
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, H000, H999, P000, & P999
File Size3 MB
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