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________________ णट्टट्टकम्मणिवहा अट्टगुणातीदणंतसंस्गरा । किदकिच्चा णिच्चसुहा सिद्धा लोयग्गगा देंतु ।।4।। अन्वय - णट्ठट्टकम्मणिवहा अट्टगुणातीदणंतसंसारा किदकिच्चा णिच्चसुहा सिद्धा लोयग्गगा देंतु ।।4।। अर्थ- आठ कर्मों के समूह के नाशक, आठ गुण अर्थात् क्षायिक सम्यक्त्व आदि से युक्त, अनंत संसार से रहित, कृतकृत्य, नित्य सुख से युक्त सिद्ध परमेष्ठी भगवान लोकाग्र अर्थात् मोक्ष सुख को देवें । पंचाचारेसु सया सयंच जे आयरंति अण्णे हु। आयारयति किवया आइरिया ते मुणेयव्वा ।।5।। अन्वय - हु जे सया पंचाचारेसु सयंच आयरंति किवया अण्णे आयारयति ते आइरिया मुणेयव्वा ।।5।। अर्थ - निश्चय से जो सदाकाल पंचाचार अर्थात् दर्शनाचार आदि पाँच आचारों का स्वयं आचरण करते हैं तथा जो अन्य भव्य जीवों को दयावश पंचाचार आदि का आचरण कराते हैं, उन्हें आचार्य परमेष्ठी जानना चाहिए। रयणत्तयसंजुत्ता जिणुत्तपुव्वंगसुदपवीणा हु। मग्गुद्देसणकुसलोवज्झाया देंतु मे बोहिं।।6।। अन्वय - रयणत्तयसंजुत्ता जिणुत्तपुवंगसुदपवीणा हु मग्गुदेसणकुसलोवज्झाया में बोहिं देंतु ।।6।। अर्थ- रत्नत्रय से युक्त, जिनेन्द्र के द्वारा कथित पूर्व और अंगरूप श्रुत में प्रवीण, मार्ग और उपदेश में कुशल ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी मुझे बोधि प्रदान करें। सयलगुणसीलकलियो सदसणणाणचरणसंपुण्णो । साधयदि साधुगणो तदुवायं देउ मे णिच्च ।।7।। अन्वय - सयलगुणसीलकलियो सदसणणाणचरणसंपुण्णो ( 2 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002708
Book TitleParamagamsara
Original Sutra AuthorShrutmuni
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherVarni Digambar Jain Gurukul Jabalpur
Publication Year2000
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, H000, H999, P000, & P999
File Size3 MB
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