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जिसके उदय से आत्मा के शरीर की रचना होती है वह शरीरनामकर्म है।
(स.सि.8/11) विशेष - यदि शरीरनामकर्म जीवके न हो, तो जीवके अशरीरताका प्रसंग आता है। शरीर-रहित होनेसे अमूर्त आत्मा के कर्मोंका होना भी संभव नहीं है, क्योंकि, मूर्त पुद्गल और अमूर्त आत्माके सम्बन्ध होनेका अभाव है।
(ध. 6/52) शरीरनामकर्म के भेद जंतं सरीणणामकम्मंतं पंचविहं ओरालियसरीरणामं वेउव्वियसरीरणामं आहारसरीरणामं तेयासरीरणामं कम्मझ्यसरीरणामं चेदि। जो शरीर नाम कर्म है वह पांच प्रकार का है औदारिकशरीरनामकर्म, वैक्रियिकशरीरनामकर्म, आहारकशरीरनामकर्म, तैजसशरीरनामकर्म और कार्मणशरीरनामकर्म,।
(ध. 6/68) औदारिक शरीरनामकर्म जस्स कम्मस्स उदएण आहारवग्गणाए पोग्गलक्खंधा जीवेणोगाददेसट्ठिदा रस रुहिर-मांस-मेदट्ठि-मज्ज-सुक्कसहावओरालियसरीरसरुवेण परिणमंति तस्स ओरालियसरीरमिदिसण्णा। जिस कर्म के उदय से जीव के द्वारा अधिष्ठित देश में स्थित आहार वर्गणा के पुद्गल स्कंध रस, रुधिर, मांस, मेदा (चर्बी), अस्थि, मज्जा और शुक्र स्वभाव वाले औदारिक शरीर के स्वरूप से परिणत होते हैं, उस कर्म की 'औदारिक शरीर' यह संज्ञा है।
(ध. 6/69) उदारः पुरुः महानित्यार्थः, तत्र भवं शरीरमौदारिकम्।। उदार, पुरु और महान् ये एक ही अर्थ के वाचक हैं। उसमें जो शरीर उत्पन्न होता है उसे औदारिक शरीर कहते हैं।
(ध. 1/290) वैक्रियिक शरीरनामकर्म
जस्स कम्मस्स उदएण आहारवग्गणाएखंघा अणिमादि अट्ठगुणो क्लक्खियसुहासुहप्पयवेउब्वियसरीर सरूवेण परिणमंति तस्स वेउव्वियसरीरमिदिसण्णा। जिस कर्म के उदयसे आहारवर्गणा के स्कंध अणिमा आदि गुणों से उपलक्षित शुभाशुभात्मक वैक्रियिक शरीर के स्वरूप से परिणत होते है, उस कर्म की
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