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उपरिमग्रैवेयक पर्यन्त उत्पन्न होते हैं । पूजा, व्रत, तप, दर्शन,ज्ञान और चारित्र से सम्पन्न निर्ग्रन्थ भव्य इससे आगे सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त उत्पन्न होते हैं । मंद कषायी व प्रिय बोलने वाले कितने ही चरक (साधुविशेष)
और परिव्राजक क्रम से भवनवासियों को आदि लेकर ब्रह्मकल्प तक उत्पन्न होते हैं । जो कोई पंचेन्द्रिय तिर्यंच संज्ञी अकाम निर्जरा से संयुक्त हैं, और मंदकषायी हैं वे सहस्रार कल्प तक उत्पन्न होते हैं। जो तनदंडन अर्थात कायक्लेश आदि से सहित और तीव्र क्रोध से युक्त हैं ऐसे कितने ही आजीवक साधु क्रमशः भवनवासियों से लेकर अच्युत स्वर्ग पर्यन्त जन्म लेते हैं। देव और देवियों की उत्पत्ति ईशान कल्प तक होती है। इससे आगे केवल देवों की उत्पत्ति ही है। कन्दर्प, किल्विषिक और आभियोग्य देव अपने अपने कल्पकी जघन्य स्थिति सहित क्रमशः ईशान, लान्तव और
अच्युत कल्प पर्यन्त होते हैं। .. (ति.प. 8/579-589) लौकान्तिक देवायु के बन्धयोग्य परिणाम
इह खेत्ते वेरगं, बहुभेयं भाविदूण बहुकालं संजम भावेहि मुणी, देवालोयंतिया होति थुइणिंदासु समाणो, सुहदुक्खेसु सबंधुरिउवग्गे जो समणो सम्मत्तो,सोच्चियलोयंतियो होदि जे णिरवेक्खादेहे, णिछंदा णिम्ममा णिरारम्भा णिखज्जासमणवरा, ते च्चिय लोयंतिया होति संजोगविप्पयोगे,लाहालाहम्मिजीविदे मरणे जो समदिछी समणो, सोच्चिय लोयंतिओ होदि अणवरदसमं फ्ता, संजमसमिदीसुझाणजोगेसुं । तिव्वतवचरणजुत्तासमणालोयंतिया होति पंचमहव्वयसहिया पंचसुसमिदीसु चिरम्मिचेट्ठति। पंचक्खविसयविरदा रिसिणोलोयंतिया होति ॥ इस क्षेत्र में बहुत काल तक बहुत प्रकार के वैराग्य को भाकर संयम से युक्त मुनि लौकान्कि देव होते हैं। जो सम्यग्दृष्टि श्रमण (मुनि) स्तुति और निन्दा में, सुख और दुःख में तथा बन्धु और रिपु में समान हैं वही लौकान्तिक होता है। जो देह के विषय में निरपेक्ष, निर्द्वन्द्व, निर्मम, निरारम्भ और निरवद्य हैं वे ही श्रेष्ठ श्रमण लौकान्तिक देव होते हैं। जो श्रमणसंयोग और वियोग में, लाभ और अलाभ में, तथा जीवित और मरण में, समदृष्टि होते
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