SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वर्गों में उत्पन्न होते हैं। यदि सम्यग्दर्शन की विराधना हो जाये तोभवनवासी आदि में उत्पन्न होते हैं। तत्त्वज्ञान से रहित बालतप तपने वाले अज्ञानी मन्द कषाय के कारण कोई भवनवासी व्यन्तर आदि सहस्त्रार स्वर्ग पर्यन्त उत्पन्न होते हैं, कोई मरकर मनुष्य भी होते हैं, तथा तिर्यंच भी। अकाम निर्जरा, भूख प्यास का सहना, ब्रह्मचर्य, पृथ्वीपर सोना, मल धारण आदि परिषहों से खेदखिन्न न होना, गूढ़ पुरुषों के बन्धन में पड़ने पर भी नहीं घबड़ाना, दीर्घकालीन रोग होने पर भी असंक्लिष्ट रहना, या पर्वत के शिखर से झंपापात करना, अनशन, अग्नि प्रवेश, विषभक्षण आदि को धर्म मानने वाले कुतापस व्यन्तर और मनुष्य तथा तिर्यचों में उत्पन्न होते हैं । जिनने व्रत या शीलों को धारण नहीं किया किन्तु जो सदय हृदय हैं, जल रेखा के समान मन्द कषायी हैं, तथा भोग भूमि में उत्पन्न होने वाले व्यन्तर आदि में उत्पन्न होते हैं। (रा.वा. 6/20) उम्मग्गचारिसणिदाणणलादिमुदाअकामणिज्जरिणो। कुदवा सबलचरित्ता भवणतियंजंति तेजीवा ॥ उन्मार्गचारी, निदान करने वाले अग्नि, जल आदि से झंपापात करने वाले, बिना अभिलाष बन्धादिककै निमित्त तैं परिषह सहनादिकरि जिनकै निर्जरा भई, पंचाग्नि आदि खोटे तपके करने वाले, बहुरि सदोष चारित्र के धरन हारे जे जीव हैं वे भवनत्रिक विषै जाय ऊपज हैं। (त्रि. सा. /450) भवनवासी देवायु के बन्धयोग्य परिणाम अवमिदसंका केई,णाणचरित्ते किलट्ठिभावजुदा । भवणामरेसु आउं, बंघंति हु मिच्छभाव जुदा ॥ अविणयसत्ता केई, कामिणिविरहज्जरेण जन्जरिदा। कलहपिया पाविट्टा जायते भवणदेवेसु ॥ जे कोहमाणमायालोहासत्ताकिलिट्ठचारित्ता । वइराणुबद्धरुचिणो, ते उपज्जति असुरेसु ॥ ज्ञान और चारित्र के विषय में जिन्होंने शंका को अभी दूर नहीं किया है तथा जो क्लिष्ट भाव से युक्त हैं, ऐसे जीव मिथ्यात्व भाव से सहित होते हुए भवनवासी सम्बन्धी देवों की आयुको बाँधते हैं । कामिनी के विरहरूपी ज्वर से जर्जरित, कलहप्रिय और पाप्पिष्ठ कितने ही अविनयी जीव भवनवासी देवों में उत्पन्न होते हैं। जो जीव क्रोध, मान, माया में आसक्त (45) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002707
Book TitlePrakruti Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherDigambar Sahitya Prakashan
Publication Year1998
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy