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ते कालवसं पत्ता, फलेण पावाण विसमपाकाणं । उप्पज्जति कुरूवा, कुमाणुसा जलहिदीवेसुं ॥ मिथ्यात्व में रत, मन्द कषायी, प्रियबोलने वाले, कुटिल धर्म फलको खोजने वाले, मिथ्यादेवों की भक्ति में तत्पर, शुद्ध ओदन, सलिलोदन व कांजी खाने के कष्ट से संक्लेशको प्राप्त विषम पंचाग्रि तप व कायक्लेश को करने वाले, और सम्यक्त्व रूपी रत्न से रहित अधन्य जीव अज्ञानरूपी जल में डूबते हुए लवणसमुद्र के द्वीपों में कुमानुष उत्पन्न होते हैं। इसके अतिरिक्त जो लोग तीव्र अभिमान से गर्वित होकर सम्यक्त्व व तपसे युक्त साधुओं का किंचित् भी अपमान करते हैं, जो दिगम्बर साधुओं की निन्दा करते हैं, जो पापी संयम तप व प्रतिमायोगसे रहित होकर मायाचार में रत रहते हैं, जो ऋद्धि ,रस और सात इन तीन गारवों से महान होते हुए मोह को प्राप्त हैं जो स्थूल व सूक्ष्म दोषों की गुरुजनों के समीप में आलोचना नहीं करते हैं, जो गुरु के साथ स्वाध्याय व वन्दना कर्म को नहीं करते, जो दुराचारी मुनि संघ को छोड़कर एकाकी रहते हैं, जो क्रोध से सबसे कलह करते हैं, जो आहार संज्ञा में आसक्त व लोभ कषाय से मोह को प्राप्त होते हैं, जो जिनलिंग को धारण कर घोर पाप को करते हैं, जो अरहन्त तथा साधुओं की भक्ति नहीं करते हैं, जो चातुर्वण्य संघ के विषय में वात्सल्य भाव से विहीन होते हैं, जो जिनलिंग के धारी होकर स्वर्णादिको हर्ष से ग्रहण करते हैं जो संयमी के वेष में कन्या विवाहादिक करवाते हैं, जो मौन के बिना भोजन करते हैं, जो घोर पाप में संलग्न रहते हैं, जो अनन्तानुबन्धी चतुष्टय में से किसी एक के उदित होने से सम्यक्त्व को नष्ट करते हैं, वे मृत्युको प्राप्त होकर विषम परिपाकवाले पापकर्मों के फल से समुद्र के इन द्वीपों में
कुत्सित रूप से कुमानुष उत्पन्न होते हैं। (ति.प. 4/2540-51) देवायु सामान्य के बन्धयोग्य परिणाम सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि देवस्य। सम्यक्त्वं चा सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप ये देवायु के आसव हैं। सम्यक्त्व भी देवायु का आस्रव है।
(त.सू. 6/20-21) स्वभावमार्दवं च।.....एतदपि मानुषस्यायुष आसवः। पृथग्योगकरणं किमर्थम् । उत्तरार्थम्, देवायुष आसवोऽयमपि यथा स्यात्। स्वभाव की मृदुता भी मनुष्यायुका आस्रव है। प्रश्न - इस सूत्र को पृथक क्यों बनाया ? उत्तर - स्वभाव की मृदुता देवायुका भी आस्रव है इस बात के
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