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________________ धर्मोपदेश में मिथ्या बातों को मिलाकर उनका प्रचार करना, शीलरहित जीवन बिताना, अतिसंधानप्रियता तथा मरण के समय नील व कापोत लेश्या और आर्त ध्यान का होना आदि तिर्यचायु के आस्रव हैं। (स.सि. 6/16) मिथ्यात्वोपष्टम्माऽधर्मदेशनाऽनल्पारम्भपरिग्रहाऽतिनिकृतिकूटकर्माऽवनिभेदसदृश-रोषनिः शीलता शब्दलिङ्गवञ्चनाऽतिसन्धानप्रियता-भेदकरणाऽनर्थोद्भावन-वर्णगन्धरसस्पर्शान्यत्वापादनजातिकुलशीलसंदूषण-विसंवादनाभिसन्धि मिथ्याजीवित्वसद्गुणव्यपलोपाऽसद्गुणख्यापन-नीलकापोतलेश्यापरिणामआर्तध्यानमरणकालतादिलक्षणः प्रत्येतव्यः। मिथ्यात्वयुक्त अधर्मका उपदेश, बहु आरम्भ, बहुपरिग्रह, अतिवंचना, कूटकर्म, पृथ्वीकी रेखा के समान रोषादि, निःशीलता, शब्द और संकेतादिसे परिवंचना का षड्यन्त्र, छल-प्रपञ्चकी रुचि, भेद उत्पन्न करना, अनर्थोद्भावन, वर्ण, रस, गन्ध आदिको विकृत करने की अभिरुचि, जातिकुलशीलसंदूषण, विसंवाद रुचि, मिथ्याजीवित्व, सद्गुण लोप, असद्गुणख्यापन, नीलकापोतलेश्या रूप परिणाम, आर्तध्यान, मरण समय में आर्त रौद्र परिणाम इत्यादि तिर्यचायु के आस्रव के कारण हैं। (रा.वा. 6/16) उम्मग्गदेसगो मग्गणासगो गूढ़हियमाइल्लो । सठसीलोय ससल्लो तिरियाऊ बंधदे जीवो॥ जो जीव विपरीत मार्ग का उपदेशक होई, भलामार्ग का नाशक होई, गूढ़ और जानने में न आवै ऐसा जाका हृदय परिणाम होइ, मायावी कपटी होई अर शठ मूर्खता संयुक्त जाका सहज स्वभाव होई, शल्यकरि संयुक्त होइसो जीव तिर्यंच आयु को बाँधै है। (गो.क.मू. 805) भोग भूमिज तिर्यच आयु के बन्धयोग्य परिणाम दादूण केई दाणं, पत्तविसेसेसु के वि दाणाणं । अणमोदणेण तिरिया, भोगक्खिदीए विजायंति ॥ गहिदूण जिणलिंगं संजमसम्मत्तभावपरिचत्ता । मायाचारपयट्टा, चारित्तं णासयंतिजे पावा ॥ दादूण कुलिंगीणं, णाणदाणाणिजे णरामूढा । तव्वेसधरा केई, भोगमहीए हुवंति ते तिरिया ॥ ल्ला । (37) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002707
Book TitlePrakruti Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherDigambar Sahitya Prakashan
Publication Year1998
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size6 MB
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