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प्रदोषादिक ज्ञानावरण के आस्रव हैं और दर्शन सम्बन्धी प्रदोषादिक दर्शनावरण के आस्रव हैं।
(त.सू. , स.सि. 6 /10) आचार्योपाध्यायप्रत्यनीकत्व-अकालाध्ययन-श्रद्धाभाव-अभ्यासालस्य-अनादरार्थ-श्रवण-तीर्थोपरोध-बहुश्रुतगर्व-मिथ्योपदेशबहुश्रुतावमान-स्वपक्षपरिग्रहपण्डितत्व-स्वपक्षपरित्याग-अबद्धप्रलापउत्सूत्रवाद-साध्यपूर्वकज्ञानाधिगम-शास्त्रविक्रय-प्राणातिपातादयःशानावरणस्यासवाः। दर्शनमात्सर्याऽन्तराय-नेत्रोत्पाटनेन्द्रियप्रत्यनीकत्वदृष्टिगौरवआ-यतस्वापिता-दिवाशयनालस्य-नास्तिक्यपरिग्रहसम्यग्दृष्टिसंदूषणकुतीर्थप्रशंसा-प्राणव्यपरोपण-यतिजनजुगुप्सादयो दर्शनावरण-स्यासवाः, इत्यस्ति आसवभेदः। आचार्य और उपाध्याय के प्रतिकूल चलना; अकाल अध्ययन ; अश्रद्धा; अभ्यास में आलस्य ; अनादर से अर्थ सुनना ; तीर्थोपरोध अर्थात् दिव्यध्वनिके समय स्वयं व्याख्या करने लगना; बहुश्रुतपनेका गर्व मिथ्ययोपदेश; बहुश्रुतका अपमान करना ; स्वपक्ष का दुराग्रह ; दुराग्रहवश असम्बद्ध प्रलाप करना; स्वपक्ष परित्याग या सूत्र विरुद्ध बोलना: असिद्ध से ज्ञानप्राप्ति; शास्त्रविक्रय और हिंसादिकार्यज्ञानावरण के आस्त्रव के कारण हैं । दर्शन मात्सर्य; दर्शन अन्तराय; आँखें फोड़ना ; इन्द्रियों के विपरीत प्रवृत्ति; दृष्टि का गर्व; दीर्घ निद्रा ; दिन में सोना ; आलस्य ; नास्तिकता; सम्यग्दृष्टियों में दूषण लगाना, कुतीर्थ की प्रशंसा; हिंसा और यतिजनों के प्रति ग्लानि भाव आदि भी दर्शनावरणीय के आसव के कारण हैं । इस प्रकार इन दोनों के आसव में भेद भी है।
(रा.वा. 6 /10) दर्शनावरणीय
अप्पविसओ उवजोगो दंसणं । एदं दंसणमावारेदि त्ति दसणावरणीयं। आत्म विषयक उपयोग को दर्शन कहते हैं, इस प्रकार के दर्शनगुण को जो आवरण करता है, वह दर्शनावरणीय कर्म है। (ध. 6/9-10) ज्ञानोत्पादकप्रयत्नानुविद्धस्वसंवेदो दर्शनं आत्मविषायोपभोग इत्यर्थः। ज्ञान का उत्पादन करने वाले प्रयत्न से सम्बद्ध स्वसंवेदन अर्थात् आत्मविषयक उपयोग को दर्शन कहते हैं।
(ध6 / 32-33) अंतरङ्गार्थ विषयोपयोगप्रतिबन्धकं दर्शनावरणीयम्।
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