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________________ विशेषों को मनः पर्यय कहते हैं । उनको जो ज्ञान जानता है वह मनः पर्ययज्ञान कहलाता है । मनः पर्ययज्ञान का आवरण करने वाला कर्म मनः पर्ययज्ञानावरणीय कहलाता है । (ध. 6/28-29) परेषां मनसि वर्तमानमर्थं यज्जानाति तन्मनः पर्ययज्ञानं तदावृणोतीति मन:पर्ययज्ञानावरणीयम् । दूसरों के मन में स्थित अर्थ को जो जानता है, वह मनः पर्ययज्ञान है, उसे जो रोकता है, वह मन:पर्ययज्ञानावरणीय है । (क. प्र. / 6) केवलज्ञानावरणीय केवलमसहायमिंदियालोयणिरवेक्खं तिकालगोयराणंतपज्जायसमवेदाणंतवत्थु परिच्छेदयमसंकुडियमसवत्तं केवलणाणं एदस्स आवरणं केवल णाणावरणीयं । केवल असहाय को कहते हैं। जो ज्ञान असहाय अर्थात् इन्द्रिय और आलोक की अपेक्षा रहित है, त्रिकालगोचर है अनंत पर्यायों से समवेत अनन्त वस्तुओं का जाननेवाला है, असंकुटित अर्थात् सर्वव्यापक है और असपत्न अर्थात् प्रतिपक्षी रहित है। उसे केवल ज्ञान कहते हैं । इस केवलज्ञान के आवरण करने वाले कर्म को केवलज्ञानावरणीय कहते हैं । (ध. 6/29-30) इन्द्रियाणि प्रकाशं मनश्चानपेक्ष्य त्रिकालगोचरलोकसकलपदार्थानां युगपदवभासनं केवलज्ञानं तदावृणोतीति केवलज्ञानावरणीयम् । इन्द्रिय, प्रकाश और मनकी सहायता के बिना त्रिकाल गोचर लोक तथा अलोक के समस्त पदार्थों का एक साथ अवभास (ज्ञान) केवल ज्ञान है, उसे जो आवृत करता है, वह केवलज्ञानावरणीय है । (क.प्र./6) ज्ञानावरण व दर्शनावरण के बन्ध योग्य परिणाम तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः । एतेन ज्ञानदर्शनवत्सु तत्साधनेषु च प्रदोषादयो योज्याः, तन्निमित्तत्वात्। .... ज्ञानविषयाः प्रदोषादयो ज्ञानावरणस्य । दर्शनविषयाः प्रदोषादयो दर्शनावरणस्येति । ज्ञान और दर्शन के विषय में प्रदोष, निह्नव मात्सर्य, अन्तराय, आसादन, और उपघात ये ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आसव हैं । ज्ञान और दर्शनवालों के विषय में तथा उनके साधनों के विषय में प्रदोषादिकी योजना करनी चाहिए, क्योंकि ये उनके निमित्त से होते हैं । अथवा ज्ञान सम्बन्धी Jain Education International (5) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002707
Book TitlePrakruti Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherDigambar Sahitya Prakashan
Publication Year1998
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size6 MB
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