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खड्ग, और छुरी के साथ वे सोलह होते हैं । वीर्यका अर्थ शक्ति है इनकी प्राप्ति में विघ्न करनेवाला अन्तराय कर्म है +
(ET 13/389-390)
यदुदयाद्दातुकामोऽपि न प्रयच्छति, लब्धुकामोऽपि न लभते, भोक्तुमिच्छन्नपि न भुङ्क्ते उपभोक्तुमभिवाञ्छन्नपिनोपभुङ्क्ते, उत्सहितुकामोऽपि नोत्सहते ।
जिसके उदय से देने की इच्छा करता हुआ भी नहीं देता, प्राप्त करने की इच्छा करता हुआ भी प्राप्त नहीं कर पाता है, भोगने की इच्छा करता हुआ भी नहीं भोग सकता है उपभोग करने की इच्छा करता हुआ भी उपभोग नहीं कर सकता है और उत्साहित होने की इच्छा रखता हुआ भी उत्साहित नहीं होता है ।
(स.सि.8/13)
अन्तराय कर्म के बन्ध योग्य परिणाम
विघ्नकरणमन्तरायस्य ।
दानादि में विघ्न डालना अन्तराय कर्म का आस्रव है। (त.सू. 6/26) ज्ञानप्रतिषेधसत्कारोपघात-दान लाभ भोगोपभोगवीर्यस्नानानुलेपनगन्धमाल्याच्छादनविभूषण - शयनासनभक्ष्यभोज्यपेयलेह्यपरिभोगविघ्नकरणविभवसमृद्धिविस्मयद्रव्यापरित्यागद्रव्यासं प्रयोगसमर्थ - नाप्रमादाऽवर्णवाद - देवता- निवेद्यानिवेद्यग्रहण-निरवद्योपकरणपरित्याग
परवीर्यापहरण-धर्मव्यवच्छेदनकरण-कुशलाचरणतपस्विगुरुचैत्यपूजाव्याघात - प्रव्रजितकृपणदीनानाथवस्त्रपात्रप्रतिश्रयप्रतिषेधक्रि
यापरनिरोधबन्धनगुह्याङ्गछेदनकर्णनासिककौष्ठकर्तनप्राणिवधादिः ।
ज्ञानप्रतिषेध, सत्कारोपघात, दान, लाभ भोग, उपभोग और वीर्य, स्नान, अनुलेपन, गन्ध, माल्य, आच्छादन, भूषण, शयन, आसन, भक्ष्य, भोज्य, पेय, लेह्य और परिभोग आदि में विघ्न करना, विभव समृद्धि में विस्मय करना, द्रव्य का त्याग न करना, द्रव्य के उपयोग के समर्थन में प्रमाद करना, अवर्णवाद करना, देवता के लिए निवेदित या अनिवेदित द्रव्य का ग्रहण करना, निर्दोष उपकरणों का त्याग, दूसरे की शक्ति का अपहरण, धर्म व्यवच्छेद करना, कुशल चारित्रवाले तपस्वी, गुरु तथा चैत्यकी पूजा में व्याघात करना, दीक्षित, कृपण, दीन, अनाथ को दिये जाने वाले वस्त्र, पात्र, आश्रय आदि में विघ्न करना, पर निरोध, बन्धन, गुह्य अंगच्छेद, नाक, ओठ आदि का काट देना, प्राणिबध आदि अन्तराय कर्म के आसव के कारण हैं ।
(RT.AT. 6/27)
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