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परिभव, तिरस्कार, दोषख्यापन, विहेडन, स्थानावमान भर्त्सन, और गुणावसादन करना, तथा अंजलिस्तुति - अभिवादन-अभ्युत्थान आदि न करना, तीर्थंकरों पर आक्षेप करना आदि नीचगोत्र के आसव के कारण हैं।
(रा.वा 6 /25) जातिकुलबलरूपवीर्यपरिज्ञानैश्वर्यतपोविशेषवतः आत्मोत्कर्षाऽप्रणिधानं परावरज्ञानौद्धत्यनिन्दासूयोपहासपरपरिवादननिवृत्तिः विनिहतमानता धर्म्यजनपूजाभ्युत्थानाञ्जलिप्रणतिवन्दना ऐदंयुगीनान्यपुरुषदुर्लभगुणस्याप्यनुत्सिक्तता, अहंकारात्यये नीचैर्वृत्तिता भस्मावृतस्येव हुतभुजःस्वमाहात्म्याप्रकाशनं धर्मसाधनेषु परमसंभ्रम इत्यादि। जाति, कुल, बल, रूप, वीर्य, ज्ञान, ऐश्वर्य और तप आदि की विशेषता होने पर भी अपने में बड़प्पन का भाव नहीं आने देना, परका तिरस्कार न करना, अनौद्धत्य, असूया, उपहास, बदनामी आदि न करना, मान नहीं करना, साधर्मी व्यक्तियों का सम्मान, इन्हें अभ्युत्थान अंजलि, नमस्कार आदि करना, इस युग में अन्य जनों में न पाये जाने वाले ज्ञान आदि गुणों के होने पर भी उनका रंचमात्र अहंकार नहीं करना, निरहंकार नम्रवृत्ति, भस्मसे ढंकी हुई अग्नि की तरह अपने माहात्म्यका ढिंढोरा नहीं पीटना, और धर्मसाधनों में अत्यन्त आदरबुद्धि आदि भी उच्चगोत्र के आस्रव के कारण
(रा.वा. 6/26) अरहंतादिसु भत्ती सुत्तरुची पढणुमाणगुणपेही। बंधदि उच्चागोदं विवरीओ बंधदे इदरं ॥ अर्हन्तादि में भक्ति, सूत्ररुचि, अध्ययन, अर्थविचार तथा विनय आदि, गुणों को धारण करने वाला उच्चगोत्र कर्म को बाँधता है और इससे विपरीत नीच गोत्र को बाँधता है।
(गो.क.मू./809) अंतराय कर्म
अंतरमेति गच्छतिद्वयोः इत्यन्तरायः जो दो पदार्थों के अंतर अर्थात मध्य में आता है, वह अंतराय कर्म है।
(ध 6/13) दानादिविघ्नं कर्तुमन्तरं दातृपात्रादीनां मध्यमेतीत्यन्तरायो भाण्डारिकवत्। भण्डारीकी तरह जो दाता और पात्र आदि के बीच में आकर आत्माके दान आदि में विघ्न डालता है, वह अन्तराय कर्म है। (क.प्र./4)
(109)
हैं।
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