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________________ है। जाता है। इसलिए कान, आँख, नाक आदि अंगोंका अपनी जातिके अनुरूप अपने-अपने स्थानपर जो नियामक कर्म है, वह संस्थाननिर्माणनामकर्म कहलाता है। (ध. 6/66) तीर्थकर नामकर्म जस्स कम्मस्सउदएणजीवस्स तिलोग पूजाहोदितं तित्थयरं-णाम। जिस कर्म के उदयसे जीव की त्रिलोक में पूजा होती है, वह तीर्थकर नामकर्म (ध 6/67) जस्स कम्मस्सुदएणजीवो पंचमहाकल्लाणाणि पाविदूण तित्थं दुवालसंगं कुणदितं तित्थयरणाम। जिस कर्म के उदय से जीव पांच महाकल्याणकों को प्राप्त करके तीर्थ अर्थात् बारह अंगों की रचना करता है, वह तीर्थकर नामकर्म है। (ध 13/366) तीर्थकरत्वं नाम पधकल्याणचतुस्त्रिशदतिशयाष्टमहापातिहार्यसमवशरणादिबहुविधौचित्यविभूतिसंयुक्तार्हन्त्यलक्ष्मीं करोति। तीर्थंकर नामकर्म पंचकल्याणक, चौंतीस अतिशय, आठ प्रतिहार्य तथा समवशरण आदि अनेक प्रकार की उचित विभूति से युक्त आर्हन्त्य लक्ष्मी को करता है। (क.प्र./39) आर्हन्त्यकारणं तीर्थकरत्वनाम। आर्हन्त्य का कारण तीर्थकर नामकर्म है। (स.सि. 8/11) पाप (अशुभ नामकर्म) के बन्ध योग्य परिणाम अशुभः पापस्य।योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्यनाम्नः । अशुभ योग पापासवका कारण है | योगवक्रता और विसंवाद ये अशुभ नामकर्म के आस्रव हैं। (त.सू.6/3) चरिया पमादबहुला कालुस्संलोलदाय विसयेसु। परपरितावपवादो पावस्स य आसवं कुणदि ॥ बहु प्रमादवाली चर्या, कलुषता, विषयों के प्रति लोलुपता, परको परिताप करना तथा पर का अपवाद करना- वह पापका आस्रव करता है। (पं.का./193) . (104) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002707
Book TitlePrakruti Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherDigambar Sahitya Prakashan
Publication Year1998
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size6 MB
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