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________________ (प्रस्तावना शासन नायक भगवान् महावीर की धर्मदेशना सर्वजनहिताय सर्वजनसुखाय अर्द्धमागधी लोक भाषा में हुई थी। देशना में अणु, परमाणु, स्कन्ध, पुद्गल, आत्मा आदि वैज्ञानिक विषयों के साथ-साथ सामान्य जन के लिए आत्मोत्थान को दृष्टि में रखकर व्रत आदि आचार और दानादि धर्म का प्रतिपालन भी रहता था। महावीर वाणी की यह असाधारण विशेषता थी कि मानव और देव ही नहीं, पशु भी अपनी-अपनी धारणाओं के अनुसार उसको ग्रहण कर लेते थे। अपने अनुयायिओं के लिए मुख्यतः आचारप्रधान, और जीवन में आचरण करने योग्य धर्म की व्याख्या का प्रतिपादन होता था। वस्तुस्वरूप को समझ कर आत्मोत्थान ही इस देशना का मुख्य लक्ष्य होता था। उस देशना के कुछ अंशों को ग्रहण कर पूर्व महर्षियों, परमगीतार्थों श्री धर्मदासगणि ने उपदेशमाला और आप्त टीकाकार याकिनीमहत्तरासूनु आचार्य हरिभद्रसूरि ने उपदेशपद आदि ग्रन्थों का निर्माण कर इस परम्परा को विस्तृत रूप से आगे बढ़ाया। इन्हीं आचार्यों के अनुकरण पर प्रस्तुत धर्मशिक्षाप्रकरण लिखा गया है। इस प्रकरण के कर्ता भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित विशुद्धाचार के पालक महाकवि श्री जिनवल्लभसूरि हैं। जिनवल्लभसूरि - परम्परागत श्रुति के अनुसार ये आसिका (हाँसी) के निवासी थे और कूर्चपुर गच्छीय चैत्यवासी श्री जिनेश्वराचार्य के प्रतिभा सम्पन्न शिष्य थे। मेधावी समझकर जिनेश्वराचार्य ने इनको सभी विषयों में पारंगत विद्वान् बनाया। आगम साहित्य ज्ञान की पूर्ति के लिए उन्होंने स्वयं सुविहिताग्रणी नवांगी टीकाकार श्री अभयदेवसूरि के पास जिनवल्लभ को अध्ययनार्थ भेजा। इनकी प्रतिभा, सेवा और लगन देखकर अभयदेवाचार्य भी प्रसन्न हुए और उन्होंने सहर्ष आगमामृत रस का पान कराया। भगवान् महावीर प्रतिपादित आचार धर्म का विशुद्ध प्रतिपालन और सुविहित क्रियाचार सम्पन्न देखकर जिनवल्लभ भी आचार्य अभयदेव के ही बन गये। बन ही नहीं गये, अपितु उनके अन्तरंग शिष्य बनकर उनसे उपसम्पदा प्राप्त की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002705
Book TitleDharmshiksha Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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