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________________ निजपरमज्ञानसंजनितं योगिनः चारुचेतनानन्दनम्। यदा तदा आक्रीडति आत्मा अविकल्पभावेन ।।84।। अर्थ - जब आत्मा निर्विकल्प भाव से परिणमन करता है तब योगी के निज ज्ञान से उत्पन्न श्रेष्ठ आत्मानंद होता है। नय चक्र की रचना का हेतु लवणं व एस भणियं णयचक्कं सयलसत्थसुद्धियरं । सम्भाविसुयं मिच्छाजीवाणंसुणयमग्गरहियाणं ।।85।। लवणमिव एतद्भणितं नयचक्रं सकलशास्त्रशुद्धिकरम् । सम्यग्विश्रुतं मिथ्या जीवानां सुनयमार्गरहितानाम्।।85।। अर्थ - जैसे लवण सब व्यंजनों को शुद्ध कर देता है - सुस्वाद बना देता है वैसे ही समस्त शास्त्रों की शुद्धि के कर्ता इस नयचक्र को कहा है। सुनय के ज्ञान से रहित जीवों के लिए सम्यक् श्रुत भी मिथ्या हो जाता है। नय चक्र ग्रंथ की उपयोगिता जइ इच्छइ उत्तरिदुं अज्झाणमहोवहिं सुलीलाए। तोणादुंकुणहमइंणयचक्केदुणयतिमिरमत्तण्डे।।86|| यदि इच्छथ उत्तरितुं अज्ञानमहोदधिं सुलीलया । तर्हि ज्ञातुं कुरुत मतिं नयचक्रे दुर्णयतिमिरमार्तण्डे ।।86 ।। अर्थ – यदि लीला मात्र से अज्ञान रुपी समुद्र को पार करने की इच्छा है तो दुर्नयरुपी अन्धकार के लिए सूर्य के समान नयचक्र को जानने में अपनी बुद्धि लगाओं। इति लघुनयचक्रं देवसेनकृतं समाप्तम् । | 58 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002704
Book TitleLaghu Nayachakrama
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherPannalal Jain Granthamala
Publication Year2002
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size3 MB
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