SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विशेषार्थ - जैसे सम्यग्दृष्टि का ज्ञान सच्चा और मिथ्यादृष्टि का ज्ञान मिथ्या होता है, वैसे ही मिथ्यादृष्टि का व्यवहार और निश्चयनय मिथ्या होता है और सम्यग्दृष्टि का सम्यक् होता है। साधारण तौर से व्यवहारनय को असत्यार्थ और निश्चयनय को सत्यार्थ कहा है। किन्तु मिथ्यादृष्टि का सत्यार्थ निश्चयनय भी सम्यक् नहीं होता और सम्यग्दृष्टि का असत्यार्थ व्यवहारनय भी सम्यक् होता है। णमुणइवत्थुसहावं अह विवरीयं खुमुणह णिरवेक्खं। तं इह मिच्छाणाणं विवरीयं सम्मरूवं खु ।।68|| न मिनोति वस्तुस्वभावं अथ विपरीतं खलु मिनोति निरपेक्षम्। तदिह मिथ्याज्ञानं विपरीतं सम्यग्रूपं तु ।।68।। अर्थ - जो वस्तु-स्वरुप को नहीं जानता या निरपेक्ष रुप से विपरीत जानता है वह मिथ्या ज्ञान है और उससे विपरीत सम्यग्ज्ञान है । विशेषार्थ – वस्तु के यथार्थ स्वरूप को नहीं जानना या निरपेक्ष रूप से कुछ का कुछ जानना मिथ्याज्ञान है । तथा सापेक्ष रूप से पदार्थों के स्वरूप को जानना सम्यग्ज्ञान है। णो उवयारं कीरइ णाणस्स हु दंसणस्स वा णेए । किह णिच्छित्तीणाणं अण्णेसिं होइ णियमेण ।।69|| नो उपचारं कृत्त्वा ज्ञानस्य हि दर्शनस्य वा ज्ञेये । कथं निश्चितिज्ञानमन्येषां भवति नियमेन ।।69।। __ अर्थ - ज्ञान और दर्शन का ज्ञेय में उपचार नहीं किया जाता । तब नियम से अन्य पदार्थो के निश्चय को ज्ञान कैसे कहा जा सकता है ? | 49 | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002704
Book TitleLaghu Nayachakrama
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherPannalal Jain Granthamala
Publication Year2002
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy