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________________ सूर्य आदि पर्यायों को ग्रहण करता है उसे जिन भगवान् ने अनादि नित्य पर्यायार्थिक नय कहा है। विशेषार्थ - भरत आदि क्षेत्र, हिमवत् आदि पर्वत, पद्मादि सरोवर, सुदर्शन आदि मेरू पर्वत, लवण, कालोदधि आदि समुद्रों को मध्य में स्थित करके असंख्यातद्वीप समुद्र स्थित है; नरक के पटल, भवनवासियों के विमान, व्यंतरों के विमान, चन्द्र, सूर्य आदि मंडल ज्योतिषियों के विमान और सौधर्मकल्पादि स्वर्गो के पटल; यथायोग्य स्थानों में परिणत अकृत्रिम चैत्य चैत्यालय; मोक्ष-शिला और वृहद्वातवलय आदि अनेक आश्चर्य से युत्त परिणत पुद्गलों की अनेक द्रव्यपर्याय सहित परिणत लोकमहास्कंध आदि पर्यायें त्रिकालस्थित है इसलिये अनादि-अनिधन है । इस प्रकार के विषय को ग्रहण करने वाला अनादि नित्य पर्यायार्थिक नय है। सादि नित्य पर्यायार्थिक नय कम्मक्खयादु पत्तो अविणासी जो हु कारणाभावे । इदमेवमुच्चरंतो भण्णइ सो साइणिच्च णओ ।।2811 कर्मक्षयात्प्राप्तोऽविनाशी यो हि कारणाभावे । इदमेवमुच्चरन्भण्यते स सादिनित्यनयः ।।28।। अर्थ - जो पर्याय कर्मो के क्षय से उत्पन्न होने के कारण सादि है और विनाश का कारण न होने से अविनाशी है, ऐसी सादि नित्य पर्याय को ग्रहण करने वाला सादि नित्य पर्यायार्थिक नय है। विशेषार्थ - पर्यायार्थिक नय के प्रथम भेद का विषय अनादिनित्य | 24 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002704
Book TitleLaghu Nayachakrama
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherPannalal Jain Granthamala
Publication Year2002
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size3 MB
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