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का पिण्ड हैं । वस्तु के नित्य अंग गुण कहलाते है और अनित्य अंग को पर्याय कहते है। गुणों तथा पर्यायों के प्रदेशात्मक अधिष्ठान का नाम द्रव्य है । द्रव्य तो द्रव्य है ही द्रव्य के प्रदेश उसका क्षेत्र हैं, उसकी द्रव्य की पर्याय उसका काल है और उसके गुण उसका भाव है ये चारों वस्तु के स्वचतुष्टय कहलाते हैं । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में चारों ही सामान्य तथा विशेष के रुप में देखे जा सकते है जैसे कि द्रव्य की अपेक्षा देखने पर कोई एक व्यक्तिगत द्रव्य तो विशेष है और ऐसे-ऐसे विशेष द्रव्यों में अनुगत एक जाति सामान्य है । क्षेत्र की अपेक्षा देखने पर वस्तु का कोई एक प्रदेश तो विशेष है और उसके अनेक प्रदेशों में अनुगत एक अखंड संस्थान सामान्य है; इसी प्रकार काल की अपेक्षा देखने पर वस्तु एक समय स्थायी कोई एक पर्याय तो विशेष है और ऐसीऐसी अनेक पर्यायों में अनुगत वस्तु की त्रिकाल सत्ता सामान्य है। भाव की अपेक्षा देखने पर वस्तु का कोई एक गुण तो विशेष है और ऐसे -ऐसे अनेक गुणों का पिण्ड कोई एक अखण्ड भाव सामान्य है अथवा किसी एक गुण का कोई एक अविभाग प्रतिच्छेद तो विशेष है और अनेक अविभागी प्रतिच्छेदों में अनुगत वह अखण्ड गुण सामान्य है। सामान्य चतुष्टय स्वरूप तत्त्व सामान्य तत्त्व कहलाता है और विशेष चतुष्टय स्वरूप तत्त्व उसका विशेष समझा जाता है । सामान्य चतुष्टयात्मक तत्त्व की सत्ता को स्वीकार करके विशेष तत्त्व की सत्ता को गौण करना द्रव्यार्थिक नय है और विशेष तत्त्व की सत्ता को स्वीकार करके सामान्य तत्त्व की सत्ता को गौण करना पर्यायार्थिक नय -कहलाता है। यथा जब द्रव्यार्थिक दृष्टि से देखते है तो नारक, तिर्यच, मनुष्य, देव आदि पर्याय को गौण करके मात्र एक जीव सामान्य के ही दर्शन होते है। और जब द्रव्यार्थिक दृष्टि को गौणकर के पर्यायर्थिक दृष्टि से द्रव्य का
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