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________________ ब्रह्महेमचंद्रविरचित = अर्थ :- श्रुत ज्ञान दो प्रकार का है। अंग प्रविष्ट और अंगबाह्य । इन दोनों अंग प्रविष्ट और अंगबाह्य श्रुत के समस्त 184467440 737 09551615 अपुनरुक्त अक्षर हैं। सव्वसुयं अक्खरसं मझिमपदभाइयं हरेहु णियमेण । पयसंखा सा जाणसु सेससुदं अंगबाहिरयं ।।56|| ||18446744073629443440॥ द्वादशानामंगानां सकलश्रुताक्षरसंख्याप्रमाणं । अर्थ :- सकल श्रुत अंग बाह्य और अंग प्रविष्ट रूप अपुनरूक्त अक्षरों की जो संख्या अर्थात् 18446744073709 551615 इस संख्या में से अंग बाह्य के 80108175 अक्षरों की संख्या कम कर देने पर द्वादशांग के सकल श्रुत के अक्षरों का प्रमाण 18446744073629 443440 प्राप्त होता है। अडअडसीदीसगणहतहतयअडचदुतय तहय सोलसया। मझिमपदेसु अंका एसो भासंति तित्थयरा ।।57।। 16348307888 मध्यमपदाक्षरसंख्या। अर्थ :- सोलह सौ चौंतीस करोड़ तेरासी लाख अठत्तर सौ अठासी संयोग अक्षरों का एक मध्यम पद होता है। एकावण्णं कोडी लक्खा अडेव सहसचुलसीदी। सयछक्कं णायव्वं साढाइकवीसपयगंथा ।।58।। 510884621 मध्यमग्रंथप्रमाणं -[28] . - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002703
Book TitleShruta Skandha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramha Hemchandra, Vinod Jain, Anil Jain
PublisherGangwal Dharmik Trust Raipur
Publication Year2002
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, canon, & Agam
File Size3 MB
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