SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ब्रह्महेमचंद्रविरचित अग्रायणीय पूर्व को भावों की विशुद्धि के लिए नमस्कार करता हूँ । सुरवइणाइंदपउरसत्तीओ । चक्कहरकेवलीणं सदरीलक्खाइं पयं पडिवायइ वीरियपवादो ||40|| 7000000 अर्थ :जो श्रुत ज्ञान चक्रवर्ती, केवली, सुरेन्द्र और नागेन्द्र की शक्ति का सत्तर लाख पदों द्वारा वर्णन करता है, उसे वीर्य प्रवाद पूर्व कहते हैं । विशेषार्थ - जिसमें छद्मस्थ व केवलियों के वीर्य का सुरेन्द्र व दैत्येन्द्रों के वीर्य एवं ऋद्धि का, राजा चक्रवर्ती और बलदेवों के वीर्य लाभ का, द्रव्यों का, आत्मवीर्य, परवीर्य, उभयवीर्य, क्षेत्रवीर्य, भववीर्य, ऋषिवीर्य, तपोवीर्य एवं सम्यक्त्व के लक्षण का कथन किया गया है, वह वीर्यप्रवादपूर्व है । दव्वं अणेयभेयं अत्थि अ णत्थित्ति धम्मसूययरं । सट्टीसयसहसपयं अत्थीणत्थीदिपुव्वोयं ॥41|| 6000000 अर्थ :- जो श्रुत ज्ञान साठ लाख पदों के द्वारा द्रव्यों के अस्तित्व और नास्तित्व रूप अनेक प्रकार के धर्मों का भलीभांति कथन करता है, उसे अस्तिनास्ति प्रवाद पूर्व कहते हैं । विशेषार्थ - जिसमें छहों द्रव्यों का भाव व अभाव रूप पर्याय के विधान से द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों नयों के अधीन एवं प्रधान व Jain Education International For Private & Personal Use Only [[20] www.jainelibrary.org
SR No.002703
Book TitleShruta Skandha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramha Hemchandra, Vinod Jain, Anil Jain
PublisherGangwal Dharmik Trust Raipur
Publication Year2002
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, canon, & Agam
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy