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________________ ब्रह्महेमचंद्रविरचित अर्थ :- जिनेन्द्र भगवान के द्वारा बारहवें दृष्टिवाद अंग के परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका ये पाँच भेद कहे गये हैं। विशेषार्थ - बारहवां अंग दृष्टिप्रवाद है। कौत्कल, काणविद्धि, कौशिक, हरिश्मश्रु, मांथपिक, रोमश, हारित, मुण्ड और आश्वलायनादिक क्रियावाददृष्टियों के एक सौ अस्सी मरीचिकुमार, कपिल, उलूक, गार्ग्य, व्याघ्रभूति, वाद्वलि, माठर और मौद्गल्यायन आदि अक्रियावाद दृष्टियों के चौरासी, शाकल्य, वल्कलि, कुथुमि, सात्यमुग्रि, नारायण, कण्व, माध्यंदिन, मोद, पिप्पलाद, बादरायण, स्विष्टिकृत, ऐतिकायन, वसु और जैमिनी आदि अज्ञानिक दृष्टियों के सड़सठ वशिष्ठ, पाराशर, जतुकर्ण, वाल्मीकि, रोमहर्षणि, सत्यदत्त, व्यास, एलापुत्र, औपमन्यव, ऐन्द्रदत्त और अयस्थूण आदि वैनयिक दृष्टियों के बत्तीस इन तीन सौ तिरेसठ मतों की प्ररूपणा और उनका निग्रह दृष्टिवाद अंग में किया जाता है । चंदाउपमुहवादी पंचसहस्साई लक्खछत्तीसा । पदपरिमाणपमाणं सा जाणहु चंदपण्णत्ती ॥23॥ 3605000 अर्थ :- जो परिकर्म छत्तीस लाख पाँच हजार प्रमाण पदों के द्वारा चन्द्रमा की आयु आदि का प्रमुखता से वर्णन करता है वह चन्द्र प्रज्ञप्ति नाम का परिकर्म है । विशेषार्थ - छत्तीस लाख पाँच हजार पद प्रमाण चन्द्रप्रज्ञप्ति में चन्द्रबिम्ब उसके मार्ग, आयु व परिवार का प्रमाण, चन्द्रलोक, उसका गमन विशेष, उससे उत्पन्न होने वाले चन्द्र दिन का प्रमाण, राहु और [12] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002703
Book TitleShruta Skandha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramha Hemchandra, Vinod Jain, Anil Jain
PublisherGangwal Dharmik Trust Raipur
Publication Year2002
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, canon, & Agam
File Size3 MB
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