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2. पडहसंखबरततीतालई अब्भसियई वज्जाई खालई । पत्तपुप्फणाणाफल छेज्जइँ हयगयविदारोहण विज्जइँ ।।
-णायकुमारचरिउ 3.1.7-8 अर्थ-पटह, शंख व सुन्दर तन्त्रीताल आदि ध्वनि-वाद्यों का अभ्यास
किया। पत्रों, पुष्पों व फलों को नाना प्रकार से काटने-छांटने की रीतियां, घोड़ों व हाथियों के प्रारोहण की विद्याएं.... ।
3. मित्ताणद्धर-वग्यसूपणा । एए णरवइ वग्घ-सन्दणा ।।
-पउमचरिउ 60.6.3 अर्थ-मित्रानुदर और व्याघ्रसूदन-ये-ये राजा व्याघ्ररथ पर पासीन
थे।
4. म चिराहि ए एहि उम्मीलणेताई,
लह गपि प्रालिगि सोमालगत्ताइ । भणु कस्स तुट्ठो जिरणो देसि ठाणस्स, लइ अज्ज जायं फलं तुज्झ माणस्स ।
-सुदंसणचरिउ 8.20.5-6 अर्थ-पात्रो, प्रायो, शीघ्र चलकर उस उन्मीलित नेत्र सुकुमारगात्री का
प्रालिंगन करो । मला कहो तो, जिनेन्द्र सन्तुष्ट होकर भी तुम्हें कौनसी बात प्रदान करेगा ? लो आज ही तुम्हारे ध्यान का फल
तुम्हें मिल रहा है। 5. पुच्छिउ वज्जयण्णे ण हसेवि विज्जुलङ्गो। भो भो कहिँ पय? वहु-वहल-पुलइयङ्गो॥
-पउमचरिउ 25.3.1 अर्थ-वज्र कर्ण ने हंसकर विद्युदंग से पूछा-अरे-अरे, प्रत्यन्त पुलकित
अग तुम कहाँ जा रहे हो ? अमरिस-कुद्धएण अमर-वरङ्गण-जूरावणेणं । णिन्मच्छिउ विहीसणो पढम-भिडन्तें रावणेणं ।।
-पउमचरिउ 66.6.1
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[ अपभ्रंश अभ्यास सौरम
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