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जय बोलकर अक्षयकुमार निकल पड़ा, मानो गरुड़ के सम्मुख तक्षक ही निकला हो ।
4.
जय विगयमय विसयरइजलणणवजलय । जय सहसयरसरिसपरिफुरियजुइवलय ॥
-सुदंसणचरिउ 1.11.9-10 अर्थ-पाप भयरहित हैं और विषयों के राग की अग्नि को नये मेघ के
समान वमन करने वाले हैं । आपका प्रभामण्डल सूर्य के सहश स्फुरायमान है।
__ परधण-परकलत्त-परिसेस? परवल-सण्णिवाय । एक्के लक्खणेण विणिवाइय सत्त सहास रायहुं ॥
-पउमचरिउ 40.4.1 अर्थ-परधन और परस्त्रियों को समाप्त करनेवाले शत्रु-सैन्य के लिए
सन्निपात के समान सात हजार राजाओं के सैन्य को अकेले लक्ष्मण ने मार गिराया।
6. पसुत्नु समुट्ठिउ दंतसमीहु महाबलु लोललुवाविय-जीहु । सरोसु वि देइ कम ण मइंदु मणम्मि मरंतह देउ जिणिदु ।।
-सुदंसरणचरिउ 8.44.2 अर्थ-सोकर उठा हुआ गज का अभिलाषी, महाबलशाली, लोलुपता से
जीभ को लपलपाता हुआ, सक्रोध मृगेन्द्र भी उस पर अपने पंजे का आघात नहीं कर सकता जो अपने मन में जिनेन्द्रदेव का स्मरण कर रहा हो।
सिणिद्धरुक्सपुप्फरेणुपिंजरं फलोवडतवुक्करंतवाणरं दिसाचरंतजक्ख किंकिणीसरं लयाहरत्थकीलमाणकिणरं
-जसहरचरिउ 3.16.5-6
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[ अपभ्रंश अभ्यास सौरभ
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