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5. दुरियाणण-दुस्सर-दुव्विसहा ससि-सूर-मऊर कुरूर-गहा ।। सुप्रसारण-सुन्द-णिसुन्द-गया करि-कुम्भ णिसुम्म वियम्भ भया ।।
-पउमचरिउ 59.6.4-5 अर्थ-दुरितानन, दुर्गम्य और सह्य, चन्द्रमा, सूर्य, मऊर और कुरुर ग्रह
नी निकल आये। हाथियों की सूंडों को कुचलने से भयंकर सुत. सारण सुन्द और निसुन्द भी गये ।
6. हीण हीण हउँ बंभिणि सुगुणसुबुद्धिवज्जिया। अप्पसुप्रो आहाणउ णिसुणंती ण लज्जिया ॥
-सुदंसणचरिउ 7.12.5-6 अर्थ - मैं एक हीन-दीन, सद्गुणों और सद्बुद्धि से वजित ब्राह्मणी हूँ।
इसी से अपनी कान-सुनी बात सुनते मुझे लज्जा (शंका) नहीं आई ।
7. कालि-वन्दणहराकन्द-मिण्णञ्जणा । सम्मु-णल विग्ध-चन्दोयराणन्दणा ।।
-पउमचरिउ 66.88 अर्थ-कालि और वन्दनगृह, कन्द और भिन्नांजन, शंभू और नल, विघ्न
और चन्द्रोदर पुत्र .... ।
8. इय जाम वयपुण्ण थिउ लेइ सुपइण्ण । पिच्छेवि सहसत्ति चितेइ णिवपत्ति ।।
-सुदंसणचरिउ 8.25.1-2 अर्थ-इस प्रकार जब सुदर्शन व्रतपूर्ण सुप्रतिज्ञा ले रहा था तभी राजपत्नी
सहसा उसकी ओर देखकर सोचने लगी....।
9. मुणीण समाणु अणुव्वजमाणु । घरंगणु जाम स गच्छइ ताम ।।
- णायकुमारचरिउ 9.21.9-10 अर्थ-मुनि के साथ पीछे-पीछे अपने घर के प्रांगन तक जावे.... ।
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[ अपभ्रंश अभ्यास सौरभ
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